Sunday, October 28, 2007

A Body in Raigarh

Various television news channels are carrying reports on "the discovery of a body in Mr. Ajit Jogi's house at Raigarh." To set the record straight, I would like to submit the following:
  1. The house has been on rent ever since it was built some two years ago.
  2. The body was not found inside the house. In fact, it was lying in a ditch fifty feet outside the building.
  3. The present tenant of the house is one Mr. Ashok Tota, who is the proprietor of Ansh hotel. The General Manager of the said hotel, who is also the present occupant of the house, informed the police about the discovery of the body.
  4. According to the local TI, the body probably belongs to a vagrant. Postmortem is scheduled to be conducted tomorrow morning.
  5. The Jogi family has nothing to do with this unfortunate incident and any attempt to link our name to it is regrettable.
AJ
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Saturday, October 20, 2007

Happy Vijay Dashmi (in Chhattisgarhi): तीन मूढ़ी के रावण

विजय दशमी के पावन तिहार मोर कोति ले गाड़ा-गाड़ा भर सुभकामनाआज के दिन अब्बड़ खुसी के दिन हवेआज के दिन भगवान राम दस मूढ़ी के रावन के नास करे रहिस

आज के जुग रावन काला हे? सिरतोन गोठ ये हे, के आज के जुग के रावण के तीन मूढ़ हवेओखर पहिली मूढ़ बेरोजगारी हे; दूसर मूढ़ नशा हे; अउ तीसर मूढ़, हमर मन जेन नफरत होते, वो हेये तीन मूढ़ी के रावन हमन नौजवान मन बरबाद करत हे

ओखर भस्काये बर, हमन एक होना परहीजेन उत्साह के संग हमन नवरात्री माता के पूजा करथे, उहू उत्साह के संग अपन सरकार हमला कामबूता देबर मजबूर करे बर परही, जेकर हमन सम्मान के संग अपन जिनगी गुज़ारा कर सकननशा नास करे बर हमला प्रतिज्ञा करे परही के आज ले हमन चेपटी के चपेट नई आवनअउ जब हमन अपन-अपन मोहल्ले अब्बड़ बड़े ले रावण मारथे, उहू टाइम हमन अपन भीतर के नफरत खत्म करबो, ऐसन हमला संकल्प लेवन हवे

तभे जेन सपना हमर पुरखा मन हमर छत्तीसगढ़ राज बर देखे रहिस, ओला हमन साकार कर सकन

अमित जोगी
रायपुर, २०.१०.२००७
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Wednesday, October 03, 2007

सवाल

ख़बरों में रहकर भी

खुद से बेख़बर क्यों हूँ मैं?


अमित जोगी
देवभोग, .१०.२००७
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Monday, October 01, 2007

गांधी जयंती पर

I
कामुकता पे काबू
दो अक्टूबर को हम गांधी जयंती के रूप में मनाते हैं। ये मात्र एक औपचारिकता बन चुकी है। हाँ, पिछले साल लगे रहो मुन्ना भाई फिल्म ने गांधीगिरी को कुछ दिनों के लिए ही सही, लोकप्रिय तो कर दिया था। युवा वर्ग इससे खासा प्रभावित होता नज़र आया। यहाँ छत्तीसगढ़ में भी गान्धीगिरी की चंद वारदातें हुईं। छात्र नेताओं ने खुद की गन्दी नालियाँ साफ करते हुये फोटो अखबारों में छपवाई। भ्रष्ट कर्मचारियों को फूलों के गुच्छे भेंट किये गए। लेकिन फिल्मों का असर आखिर कितने दिन रहता? धीरे धीरे हम सब भूल गए।

गलती हमारी नहीं है। गांधी जी को उनके जीवनकाल में ही देवता बना दिया गया था। वे एक इन्सान भी हैं, इस बात को भुला दिया गया। उनकी सभी बातें, उनके सिद्धांत, सब अव्यवहारिक लगने लगें। अल्बेर्ट आइंस्टाइन का वो कथन कि आने वाली पीढियां कम ही विश्वास कर पाएंगी कि हाड़ और मांस का ऐसा आदमी पृथ्वी पर कभी चला था, सच सिद्ध हुआ। आज अगर सरकार को राम सेतु की तर्ज़ पर गांधी के ऐतिहासिक अस्तित्व को प्रमाणित करना पड़े, तो शायद ऐसा कर पाना मुश्किल होगा। जो लोग मोहनदास करमचंद गांधी की मानवता से परिचित हैं, वे उसे बयां करने से इसलिये कतरातें हैं कि कहीं उन पर देशद्रोह का आरोप न लग जाये?

ये सोच गलत है। अगर गांधी जी को आज के युग के लिए प्रासंगिक बनाना है, तो उनकी मानवता को एक पौराणिक कथा बनने से बचाना होगा। युवाओं को उनके जीवन के ऐसे पहलुयों से वाकिफ करना पड़ेगा जो इस बात का एहसास दिलाएं कि बापू पहले उनके जैसे ही एक इन्सान थे; महात्मा बाद में बनें। इस बात का सबसे पुख्ता प्रमाण उनकी गुजराती में लिखी जीवनी
सत्व नू प्रयोग अथवा आत्मकथा में मिलता है। ये दीगर बात है कि इसका अंग्रेज़ी अनुवाद करते समय उनके लंबे अर्से तक निजी सचिव रहे, महादेव देसाई, ने काफी सारी बातों को संशोधित कर दिया, शायद ये सोचकर कि उनका गलत निष्कर्ष निकाला जाये। इन बातों का वर्णन आधुनिक मनोवैज्ञानिक सुधीर कक्कर के भारतीय लिंग-भेद (इंडियन सेक्शुअलिती) पर लिखे शोध में विस्तार से पढ़ने को मिलता है।

कक्कर का यह मनाना है की गांधीवाद के तीन आधारस्तंभ हैं: अहिंसा, सत्याग्रह और ब्रह्मचर्य। इनमें से ब्रह्मचर्य गांधी जी के लिए सबसे महत्वपूर्ण था। इसका कारण उनकी जवानी की एक घटना में मिलता है। जब उनके पिता मरणावस्था में थे, तो गांधी जी ने दिन-रात उनके पास रहकर उनकी सेवा की। शायद इसके परिणाम स्वरूप उनकी तबियत में कुछ सुधार होने लगा। अपने पिता की हालत बेहतर होते देख, एक रात वे अपनी कामुकता को तृप्त करने अपनी पत्नी के साथ सहवास करने अपने कमरे में चल दिए। इसी बीच उनके पिता का देहांत हो गया। इस बात का अपराध-बोध उन्हें जिन्दगी भर रहा, और वे पूरी तरह इस घटना से अंत तक नहीं उभर पाए।

अपनी कामुकता पर काबू पाने के लिए उन्होनें नानाप्रकार के प्रयोग किये, जिसके उल्लेख उनकी आत्मकथा के गुजराती संस्करण में है। अगर उनके पत्राचार का अवलोकन करें, तो उनकी अनुयायी, मीरा बेन, को अचानक पूणे भेज देने का कारण भी स्पष्ट हो जाता है : गांधी जी लिखते हैं कि जब भी मीरा बेन उनको चाय का प्याला पकड़ाती थीं, उनके शरीर में वासना का संचार होने लगता था; इसको नियंत्रित करने के लिए बेन का दूर रहना आवश्यक हो गया।

ऐसा ही उदाहरण उनकी पत्नी, कस्तूरबा, द्वारा अमरीकी पत्रकार, मार्गरेट वालकर, को यरवदा जेल में दिए गए एक साक्षात्कार में मिलता है। जब उनसे पूछा गया कि बापू क्या अब भी उनके प्रति कामुकता रखते हैं, तो उन्होनें इस बात से इनकार नहीं किया; किन्तु ये ज़रूर स्पष्ट कर दिया कि आख़िरी बार सम्भोग उन्होनें चालीस वर्ष पहले किया था।

हाल ही में प्रकाशित, श्रीमती सोनिया गांधी द्वारा संशोधित पुस्तक,
दो संग दो अलग, में भी गांधी जी की वासना पर काबू पाने के प्रयास- जिसने ब्रह्मचर्य के सामूहिक सिद्धांत का रूप ले लिया- की एक अनूठी झलक मिलती है। नैनी जेल से लिखे पत्र के मध्यम से नेहरू जी अपनी बेटी, इंदिरा, को फिरोज़ गांधी से प्रेम विवाह रचाने की इजाजत इस शर्त पर देते हैं कि दोनो होने वाले दम्पत्ती बापू से पहले मिलकर अनुमति ले आयें। दादा बनने की चेष्टा रखने वाले नेहरू जी ये नहीं चाहते थे कि उनकी बेटी और दामाद का हाल उनके मित्र, जय प्रकाश नारायण, और उनकी पत्नी, प्रभा, जैसा हो : जब जे.पी. अपनी नव-विवाहित पत्नी को बापू से मिलाने ले गए, तो बापू ने एकाएक दोनो को ब्रह्मचर्य की प्रतिज्ञा दिला दी, ये हिदायत देते हुये कि अब से तुम दोनो भाई-बहन की तरह रहो।

II
संरक्षक
उक्त व्याख्यानों से साफ ज़ाहिर होता है कि गांधी जी उन्हीं सब भावों से पीड़ित थे, जिनसे युवा पीढ़ी आज भी जूझ रही है। उनका उपाय कुछ अव्यवहारिक सा लगता ज़रूर है, पर उनके हाड़ और मांस के बने मनुष्य होने पर रौशनी अवश्य डालता है। यही बात उनकी राजनीति पर भी लागू होती है। त्रिपुरी अधिवेशन में उनके प्रत्याशी, डाक्टर पिट्टाभी सीतारमय्या, की हार के बाद जिस प्रकार से उन्होनें नेताजी सुभाष चंद्र बोस को कांग्रेस अध्यक्ष का पद छोड़ने के लिए विवश कर दिया, वो चाणक्य की कूटनीति से ज़्यादा प्रेरित लगता है, न कि शत्रु-प्रेम के आदर्श से।

एक तरह से देखा जाये, तो गांधी जी का सम्पूर्ण राजनैतिक जीवन उनकी भारतीय पहचान की अदभुत समझ से उत्पन्न एक विशेष किस्म की व्यवहारिकता का अभिप्राय ही तो है। इस तथ्य को अनदेखा करना उनकी स्वतंत्रता संग्राम में अदा की गयी अहम भूमिका को नकारना होगा। बापू का पहला आन्दोलन चम्पारण में हुआ। आखिर ज़मींदारी प्रथा से पीड़ित किसान तो पूरे भारतवर्ष में थे, फिर चम्पारण ही क्यों? इसका एकमात्र कारण यह है कि केवल चम्पारण ही एक ऐसी जगह थी जहाँ का ज़मींदार अंग्रेज़ था, और किसान हिन्दुस्तानी। भारतीय पहचान की अदभुत समझ रखने वाले गांधी को इस रंग-भेद पर आधारित लाक्षणिक अर्थ का महत्व अच्छी तरह मालूम था, और इसीलिये उन्होनें चम्पारण का चयन किया।

इसी से जुड़ा दूसरा सवाल ये है कि चम्पारण का सत्याग्रह और जगह लागू क्यों नहीं किया गया? इसका जवाब जूडिथ ब्राउन के शोध,
सविनय अवज्ञा : भारतीय राजनीति में महात्मा, में मिलता है। उनके हिसाब से स्वतंत्रता संग्राम में गांधी जी का नेतृत्व एक विशेष प्रकार के समझौते पर आधारित था, जिसे उन्होनें संरक्षक-ग्राहक संबंध की परिभाषा दी है। सीधे शब्दों में कहें, तो गांधी जी संरक्षक थे; और उनके ग्राहक, भरत का आवाम, जिसमें विशेषकर ज़मींदार और उद्योगपति भी शामिल थे।

प्रारम्भ से ही गांधी जी ने स्पष्ट कर दिया था कि स्वतंत्र भारत में कृषि पर कर (लगान) नहीं लगाया जायेगा। यह कह के उन्होनें बड़ी समझदारी के साथ भारत के ज़मींदारों को आजादी की जंग में हितबद्ध कर लिया। इसी प्रकार से स्वदेशी का मूलमंत्र देकर वे उद्योगपतियों को भी अपने- और अपनी लड़ाई के- पक्ष में ले आये। आखिर अंग्रेजी मिलों के कपड़ों का बहिर्गमन करने का सीधा-सीधा लाभ भारतीय मिलों- और मिल मालिकों- को ही तो मिला। जब कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में पंडित नेहरू ने समाजवाद की बात छेड़ी- जिस से दोनों ज़मींदारों और उद्योगपतियों को नुकसान होता- तो गांधी जी ने इसका यह कह के विरोध किया कि ये आजादी से जुड़ा मुद्दा नही है, और वैसे भी समाजवाद एक विदेशी विचार है।

स्वाभाविक रूप से अब ये सवाल उठता है कि क्या ऐसा कर के गांधी जी ने भारत की आम जनता के साथ विश्वासघात किया? इसका सीधा जवाब है: बिल्कुल नहीं। अगर ये दोनों पक्ष उनका साथ नही देते, तो अंग्रेजी हुकूमत को हटाना मुश्किल ही नही, नामुमकिन भी होता। इनको अपने साथ करके गांधी जी ने ब्रिटिश राज के तीन में से दो आधारस्तंभ ध्वस्त कर दिए। (तीसरा स्तम्भ यहाँ के राजाओं का था, जिन्हे आज़ाद भारत में सम्मिलित करने का काम उनके अनुयायी, सरदार वल्लभ भाई पटेल, ने बखूबी किया।) वैसे भी, गांधी जी ने जो कुछ भी छुआ-छूत को ख़त्म करने और हिंदु-मुस्लिम एकता के लिए किया, वह अपने आप में उनके दरिद्र-नारायण (गरीब से गरीब) के प्रति निस्वार्थ प्रेम का सुबूत है।

III
साधु
गांधी जी की व्यवहारिक सोच मात्र उनकी अंग्रेजों के खिलाफ राजनैतिक व्यूह-रचना बनाने तक सीमित नहीं थी; इसकी छाप उनके राजनीति करने के तरीकों में भी हमें देखने को मिलती है। राष्ट्रवादी इतिहासकार बिपिन चंद्र ने अपनी पुस्तक,
भारत का आजादी के लिए संघर्ष, में संघर्ष-समय-संघर्ष (Struggle-Time-Struggle) सिद्धांत की परिभाषा दी है। जब एकाएक बापू ने चौरी-चौरा में हुई घटना- जिस में उद्वेलित भीड़ ने २३ पुलीस वालों को थाने में बंद करके जिंदा जला दिया था- के उपरांत राष्ट्रव्यापी असहयोग आन्दोलन को वापस ले लिया, तो अहिंसा के रास्ते से भटकना ही एकमात्र कारण नहीं था। वे भली भांती ये समझते थे कि किसी भी जनांदोलन को अनिश्चित काल के लिए नही चलाया जा सकता; धीरे धीरे वो अपने-आप तितिर-बितिर होने लगता है, और इसके पहले कि ऐसा हो, उन्होनें आन्दोलन को खुद ही वापस ले लिया।

अगला आन्दोलन उन्होनें लगभग १० साल बाद, दांडी यात्रा से शुरू किया। इसको भी लॉर्ड इरविन के राउंड टेबल कोन्फ्रेंस में सम्मिलित होने के न्यौते के बाद स्तगित कर दिया गया। फिर १० वर्ष के अंतराल के पश्चात् उन्होनें भारत छोड़ो का आह्वान किया। साफ दिखता है कि एक व्यवहारिक राजनेता की तरह, गांधी जी ने संघर्ष की अपेक्षा, समझौते को महत्व दिया; लेकिन इसका ये मतलब कदापि नहीं लगाया जा सकता कि वे संघर्ष करने से कभी भी डरे।

गांधी जी के संघर्ष करने के तरीके- मसलन सत्याग्रह- के भी दो पहलु हैं। इसका सैद्धांतिक पहलु इस मान्यता पर आधारित है कि हर व्यक्ति, चाहे वो कितना ही बुरा क्यों न हो, मूलतः एक अच्छा इन्सान है; इसलिये उसे अहिंसा और सत्याग्रह के रास्ते पर चलके अपनी गलती का एहसास कराया जा सकता है। ये सोच विख्यात राजनैतिक दार्शनिक थॉमस होब्बस से ठीक उलटी है। अपने शोध
लेविआथन में होब्बस लिखतें हैं कि आदमी का जीवन "मलिन, पशुवत् और अल्पकालीन" है; इसे काबू करने के लिए एक शक्तिशाली राजतंत्र की आवश्यकता है। निआल्ल फेर्गुसन अपनी पुस्तक एम्पायर में दोनों दृष्टिकोणों का विश्लेषण करते हुये कहते हैं कि गांधीवाद अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ इस लिये असरदार साबित हुआ क्यों कि अंग्रेजी हुकूमत वास्तव में अच्छाई और बुराई में फर्क समझती थी; अगर हिटलर की हुकूमत रहती तो धरशाला के नमक कारखाने में प्रदर्शन कर रहे सत्याग्रहियों को औष्वित्ज़ जैसे कौन्शंत्रेशन कैंप में मरने के लिए भेज दिया जाता। शायद गांधी जी इस बात से सहमत होते।

सत्याग्रह का दूसरा पहलु व्यवहारिक है। इतिहासकार आर. एस. शर्मा (Sharma) अपने निबंध,
भौतिक संस्कृति और सामाजिक परिवर्तन, में मानते हैं कि सम्राट अशोक के कलिंग युद्ध जीतने के बाद भारतीय सोच में एक अहम बदलाव आया : शक्ति के बल पर विजय की नीति की जगह उनके धम्मविजय (धर्म के माध्यम से जीत) के सिद्धांत ने ले ली। सीधे शब्दों में कहें, तो हम अहिंसावादी बन गए। शायद इसलिये १८५७ का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम, और बीसवीं शताब्दी के शुरुआती दौर के विप्लववाद/उग्रवाद विफल साबित हुये। गांधी जी की महानता इस में है कि उन्होनें हमारी अहिंसावादी प्रवृति को हमारा सबसे शक्तिशाली शस्त्र बना दिया। जनमानस से अगर पार्लियामेंट के सेंट्रल हॉल में बम फेकने को कहें, तो शायद ही कुछ लोग शहीद भगत सिंह की तरह सामने आये। हाँ, अगर उनसे हड़ताल में हिस्सा लेने को कहें- मसलन काम पे न जाके घर बैठे छुट्टी मनाए- तो शायद ही कोई होगा जो मना करे। और अगर ऐसा करके, वो आजादी की लड़ाई में भागीदार बन जाते हैं, तो सोने पे सुहागा।

ठीक ऐसा ही हुआ। गांधी जी के एक आह्वान पर पूरा देश मानो थम सा जाता था; अचानक बुद्धिजीवियों और चंद क्रांतिकारियों की मुहिम ने एक राष्ट्रव्यापी जनांदोलन का रूप ले लिया, और अंग्रेजों को अंततः भारत छोड़ना ही पड़ा।

मेरे हिसाब से हमको गांधी जी से बेहतर समझने वाला नेता आज तक उत्पन्न नहीं हुआ है; और न ही होते नज़र आ रहा है। लेकिन विडम्बना की बात तो ये है कि वे हमको जितना अच्छे से समझते थे, हम उनको- उनकी मानवता को, उनकी सैद्धान्तिक राजनीति में निहित व्यवहारिकता को- बिल्कुल भी समझ नहीं पाएं हैं। इसका सबसे बड़ा कारण शायद यह है कि हम विश्वास ही नहीं कर पाते कि कोई हमारे जैसा ही कामुकता से जूझता मनुष्य महात्मा बन सकता है। मोहनदास करमचंद गांधी महात्मा पैदा नहीं हुए थे; और न ही वो किसी देवता के अवतार थे। उन्होनें अपनी मानवीय कमियों पे काबू पाकर, अपने
जीवनकाल में खुद के भीतर एक महात्मा को जन्म दिया; और हमें पृथ्वी पर दिव्यता का एहसास कराया।

आज वो हमारे लिए चौक पर खड़ी एक मूरत बन गए हैं, जिसको साल में दो दिन साफ-सुथरा कर, फूल माला से सजा दिया जाता है। फिर भी कहीं ना कहीं गांधीवाद अब भी जिंदा है। गांधी जी की बात मानने वालों की संख्या पिछले दशक में बढ़ी ही है, घटी नहीं है। ऐसे लोगों की जो मात्र गांधी जी के चित्र का दर्शन कर बिना कुछ सोचे समझे, बिना किसी चीज़ की परवाह किये, सब काम कर देते हैं। बशर्ते : बापू के दर्शन कड़कते हुये ५०० रुपये के नोटों पर हो। और अगर १००० के गुलाबी नोट हों, तो फिर वाह भई वाह, क्या कहना!

महात्मा गांधी अमर रहें।

अमित ऐश्वर्य जोगी

समाप्त

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