Saturday, October 17, 2009

An Interview with An Advocate: एक वकील से साक्षात्कार


The Editorial Board of the daily, Chhattisgarh Watch, led by its erudite editor, Mr Ramavtar Tiwari, interviewed me recently on various aspects of my life. The interview was published in its edition of 6.10.2009. It is reproduced here with his very kind permission.

अमित जोगी का नाम एक समय खासा चर्चित रहा है. विवादों और संघर्षों का अमित के साथ चोली-दामन का साथ रहा है. एक समय वे प्रदेश में शक्ति के दूसरे केंद्र के रूप में जाने जाते थे. उस दौर में अमित की तूती बोलती थी, यह कहना गलत नहीं होगा. हालांकि इन बातों से वे इनकार भी करते हैं. श्री जोगी के पास स्पष्ट सोच है और वे अपनी बातों को बड़े सलीके से रखते हैं. "छत्तीसगढ़ वॉच" ने उनके जीवन के अलग-अलग पहलुओं को स्पर्श करने की कोशिश की है.

आप शादी कब कर रहे हैं?
नए जीवन की नई शुरुआत है. पहले इरादा सेटल होने का है. माता-पिता जब आदेश देंगे, शादी कर लेंगे. वे ही रिश्ता तय करेंगे. मेरा मानना है कि शादी दो विभिन्न परिवारों का सम्बन्ध है, जिसमे पहले बड़ों की सहमती होनी चाहिए. उसके बाद हमारी सहमती की बात आती है.

कैसी दुल्हन की कल्पना है?
घरेलू हो और माता-पिता की सेवा करे.

आपके आदर्श कौन हैं?
व्यक्तिगत जीवन में मेरे पिता जी ही मेरे आदर्श हैं. उनमें जबरदस्त विल-पॉवर है. उनसे मैं नीचे से ऊपर उठने की प्रेरणा प्राप्त करता हूँ. वैचारिक रूप से पंडित जवाहर लाल नेहरु मेरे आदर्श हैं. अनेकता में एकता की विचारधारा को उन्ही ने साकार किया है. देश स्वतंत्रता के पहले से ही अलग-अलग भाषा-बोली, वर्गों, वर्णों और क्षेत्रों में बंटा था. नेहरु जी ने ही सही मायनों में भारतीयता का निर्माण किया है.

पिता के किन गुणों से प्रभावित हैं?
पिता जी की दृढ़ इच्छा शक्ति से मैं बहुत प्रभावित हूँ. सोचता हूँ की वे इतनी शक्ति कहाँ से इकट्ठी करते हैं! वे प्रदेश की जनता से खुद को सीधा जुड़ा महसूस करते हैं. इसे मैं "excessive self identification" कहता हूँ. लोगों से सीधे तौर पर जुड़ने की यह प्रवृत्ति ही शायद उनकी इच्छा शक्ति बनती है. वे कहते भी हैं की मेरे दोनों पाँव नहीं है तो क्या हुआ, छत्तीसगढ़ की दो करोड़ जनता के चार करोड़ पाँव मेरे ही हैं. उन्हें ये ताकत जनता से मिलती है और मैं इन्ही बातों से प्रभावित हूँ.

पिता की लोकप्रियता के बारे में क्या कहते हैं?
छत्तीसगढ़ ने उन्हें बहुत प्यार दिया है.

आप भी लोकप्रिय हैं.
हो सकता है, लोग यह सोचते हैं, पर उनसे तुलना मैं नहीं कर सकता.

छत्तीसगढ़ से कांग्रेस क्यों उखड़ी?
उखड़ गई यह कहना ठीक नहीं है, यह कहना चाहिए की लड़खड़ा गई है. विशेष रूप से आदिवासी इलाकों में कांग्रेस संगठन से कमजोर है. कांग्रेस के ४ मोर्चा संगठनों की अपेक्षा RSS की ५७ संस्थाएं हैं जो इन इलाकों में गहरी पैठ बनाने में लगी हुई हैं. संकल्प कोचिंग, एकल विद्यालय, वनवासी कल्याण और वाल्मीकि आश्रम, और सरस्वती शिशु स्कूल आदि के माध्यम से वे लोग काम कर रहे हैं. वे २४ घंटे, सातों दिन और बारहों महीने सक्रीय हैं. लेकिन कांग्रेस के संगठन फील्ड में नहीं दिखते. फिर भी यह बात भी नकारी नहीं जा सकती कि कांग्रेस, और विशेषकर नेहरु-गांधी परिवार, का यहाँ आज भी प्रभाव है. पर हमारा संगठन इसका लाभ नहीं ले पा रहा है. कांग्रेस को संघ से सीखना पड़ेगा, काम करना पड़ेगा.

मेरा मानना है की कांग्रेस संगठन के रूप में कम, एक जनांदोलन के रूप में ज्यादा लोकप्रिय है. कांग्रेस अब फिर उठने की प्रक्रिया में चल पड़ी है, और राहुल जी इस अभियान के सूत्रधार के रूप में उभरे हैं. वे संगठन के ढाँचे को मजबूत करने में लगे हैं. पंजाब, उत्तराखंड, गुजरात, पुदुचेरी और छत्तीसगढ़ में युवा संगठनों के चुनाव नीचे स्थर से पूरी लोकतांत्रिक प्रक्रिया से हुए हैं. इस से पार्टी में आतंरिक लोकतंत्र आ रहा है. छत्तीसगढ़ में भी हाल ही में NSUI के चुनाव निर्वाचन पद्धति से संपन्न हुए हैं. सिर्फ ४० दिनों में ८०००० छात्र-सदस्य बनाए गए. इन छात्रों ने लगभग ४८०० प्रतिनिधियों का चयन किया, और उन्होनें जिला, प्रदेश और राष्ट्रीय स्थर पर अपने प्रतिनिधियों का चुनाव किया है. यह राहुल जी और कांग्रेस की एक बड़ी उपलब्धि है. इन सभी चुनावों को पार्टी ने नहीं बल्कि भारत के पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त, श्री लिंगदोह, की संस्था, FAME, ने करवाए. राहुल गाँधी का प्रयोग सफल रहा है.

कांग्रेस में गुटबाजी पर आप क्या कहेंगे?
कांग्रेस सिर्फ नेहरु-गाँधी परिवार के बैनर के तले है. कोई भी व्यक्ति का कोई गुट नहीं है. कांग्रेसजनों का वास्ता सिर्फ इस एक परिवार से है, और किसी से नहीं. वे ही सर्वोपरि हैं. पूरे देश में सिर्फ इस एक परिवार के प्रति जबरदस्त अपनत्व का भाव है. राहुल जी की सक्रियता से पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र कायम होने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है. आतंरिक चुनावों से पार्टी मजबूत होगी. "Youth Transforming" (युवा परिवर्तन) अभियान के तहत आने वाले दो सालों में सभी प्रदेशों में चुनाव निपटा लिए जायेंगे. और जहाँ तक गुटबाजी का सवाल है तो मैं चाहूँगा कि यह ख़त्म हो. मैं समझता हूँ कि पार्टी में युवा नेतृत्व को, NSUI और युवा कांग्रेस के माध्यम से उभारने की जो कोशिश शुरू की है, उससे भी गुटबाजी पर रोक लगेगा.

आने वाले स्थानीय निकाय चुनावों के सन्दर्भ में क्या रणनीति होगी?
स्थानीय निकाय चुनाव में युवाओं को आगे आना होगा. इन चुनावों में पार्टी और मुद्दों की अपेक्षा व्यक्तिगत छवि ज्यादा मायने रखती है. लोग व्यक्ति देखकर वोट करते हैं, ऐसे लोगों को चुनते हैं जो उनके सुख-दुःख, दुःख-दर्द में शामिल होते हैं, जिनका सीधा सततः संपर्क उनसे होता है. (इस प्रसंग में अमित जोगी ने बृजमोहन अग्रवाल की व्यवहारिकता, मिलनसारिता की खूब तारीफ़ की. उन्होंने कहा कि श्री अग्रवाल न सिर्फ शादी-ब्याह के मौके पर उपस्थित रहते हैं बल्कि करनी-मरनी के मौके पर भी उपस्थित रहते हैं. चुनाव में पार्टी नहीं, बृजमोहन जी जीतते हैं.)

आखिर युवा आगे कैसे आयेंगे?
मेरी सोच है कि युवाओं को स्थानीय चुनाव में ज्यादा से ज्यादा मौका दिया जाना चाहिए. कांग्रेस में जीतने की क्षमता और युवा होना, चुनावों में मापदंड के रूप में अपनाए जाने चाहिए.

क्या युवाओं के लिए आरक्षण होगा?
ऐसा फिक्स नहीं है.

अजीत जोगी दुष्प्रचार के शिकार हुए हैं. क्या आप सहमत हैं?
राज्य बनने के बाद उन्हें प्रदेश का नेतृत्व मिला. तब तक प्रदेश पर कुछ लोगों का एकछत्र राज था. तमाम महत्वपूर्ण पदों में उनका दबदबा था. इस वर्ग में, "speaking class" में, अजीत जोगी जी की स्वीकार्यता नहीं बन पाई. विशेष रूप से राजधानी में.

जोगी जी पर तानाशाही के आरोप भी लगाये जाते रहे हैं. आप क्या सोचते हैं?
जोगी जी यह मानते हैं कि दो करोड़ छत्तीसगढ़ के वासी उनके साथ हैं. जनता से उनका यह प्रेम कभी-कभी कमजोरी भी बन जाता है. वे अन्याय को जब कभी व्यक्तिगत रूप से लेते हैं, और उस पर प्रतिक्रया व्यक्त करते हैं, तब लोग उन्हें हिटलर कह देते हैं. ठीक वैसे ही जब फ्रांस के सम्राट लुइ चौदह कहा करते थे, "l'etat c'est moi" (मैं राज्य हूँ). जोगी जी भी खुद को छत्तीसगढ़ से उतना ही जुड़ा महसूस करते हैं. लोग इस गहरे प्यार को दुसरे ढंग से देखते और समझते हैं. मैं तो मानता हूँ कि आज राजनीति में ध्यानचंद का ज़माना नहीं रह गया. इस डी से उस डी तक अकेले गेंद ले जाने का अब चलन नहीं है. छोटे-छोटे पास देने का ज़माना है. इसके लिए टीम वर्क जरूरी है. संतुलन, समन्वय और टीम वर्क होना चाहिए. सभी को महत्व देने की जरूरत है.

भाजपा और RSS के बारे में क्या विचार है?
संघ की सादगी ख़त्म हो गयी है. व्यक्तिवाद के सामने, संघ और भाजपा दोनों दब से गए हैं. ठाकरे जी जैसी सरलता और सादगी ख़त्म हो गई है. कहने का मतलब है, संघ और भाजपा विचारधारा से हटकर अब व्यक्ति-केन्द्रित ज्यादा हो रहे है.

कहा जाता है रमन सिंह के सौम्य चेहरे ने दुबारा भाजपा की वापसी की है.
मैंने पहले ही कहा है कि जोगी जी दुष्प्रचार का शिकार हुए हैं. फिर कारण चाहे जो भी हो, भाजपा को दुबारा जनादेश तो मिला है. जनादेश का मतलब सौ खून मुआफ!

अजीत जोगी और रमन सिंह में क्या अंतर है?
सिर्फ किस्मत का. रमन सिंह जी की तकदीर ज्यादा बुलंद है. कुछ पद राजनीति में ऐसे होते हैं, जैसे मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति, जो सिर्फ तकदीर से मिलते हैं. संघर्ष से विधायक, सांसद या फिर मंत्री तो बना जा सकता है, लेकिन प्रधानमंत्री-मुख्यमंत्री जैसे पदों के लिए भाग्य का सहारा भी जरूरी है. भाजपा में रमन सिंह जी से वरिष्ट, अनुभवी और ज्यादा संघर्षशील लोग हैं पर भाग्य ने उनका साथ नहीं दिया.

लोग कहते हैं कि जोगी परिवार के रणनीतिकार आप हैं. आप क्या कहते हैं?
मैं कांग्रेस का सदस्य हूँ. मरवाही का मतदाता हूँ. अन्य कांग्रेसजनों की तरह वे मेरे सुझावों को भी सुनते हैं.

लोग राजनीति को गन्दी कहते हैं. आपके क्या विचार हैं?
मैं ऐसा नहीं मानता. भारत चाणक्य का देश है. आज भी राजनीति के बहुत से नियम और नीतियाँ घोषित और अघोषित रूप से चाणक्य-विष्णुगुप्त-कौटिल्य की बताई हुई चल रही है. राजनीति को समाज सेवा से अलग रख कर देखे जाने कि जरूरत है. राजनीति परिवर्तन लाने का सबसे तेज और सशक्त माध्यम है.

क्या आप चुनाव लड़ना चाहते हैं?
राजनीति में जब भी आऊँगा, सार्वजनिक जनादेश लेकर ही आऊँगा. जनता की स्वीकृति अंतिम और अनिवार्य है.

आपकी महत्वाकान्शाएं क्या हैं?
महत्वाकान्शाएं तो बहुत थी, पर जेल से लौटने के बाद वे सारी ख़त्म हो गयी. कीमती कपडों, घड़ी और जूतों का शौक था, अब वह भी नहीं रहा. अब ऐसे मेहेंगे शौक पालने की आत्मा गवाही नहीं देती.

आपकी ज़िन्दगी का दुखद पल कौन सा है?
पिता जी की भयंकर दुर्घटना और मेरा जेल जाना. जेल में मैंने जिंदगी का पाठ पढ़ा है. दुखी को निकट से देखा, समझा. कुल मिलाकर जेल में मेरा दूसरा जन्म हुआ है.

क्या गुस्सा आता है?
अब काफी हद तक वो भी नियंत्रित हो गया है. जरूरी हुआ तो कुछ अत्यंत ही करीबी लोगों के सामने उजागर करता हूँ. मन में अब ऐसी भावना ही नहीं रही कि किसी पर गुस्सा करूं.

अपराध बढ़ रहे हैं, आप क्या सोचते हैं?
हर क्षेत्र में अपराध बढ़ा है. कानून-व्यवस्था और प्रशासन के अलावा और भी कारण हैं. अपराधियों के बरी हो जाने का दोष वकीलों को नहीं देना चाहिए. जो कोर्ट से बरी हो जाएँ, उन्हें निर्दोष मानना ही सभ्य व्यवहार है. कोर्ट के निर्णय से पहले ही फैसले न हों. हमारी न्याय-प्रणाली बहुत सुदृढ़ है, हमें उसपे भरोसा रखना चाहिए. अब तो त्वरित न्याय के लिए फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाये जा रहे हैं, ग्राम अदालतों का गठन किया जा रहा है, कोर्ट के बाहर विवाद अनिवारण के तरीकों को कानूनी प्रोत्साहन मिल रहा है.

देश की न्याय-पध्दति सुस्त रफ़्तार है. आप क्या सहमत हैं?
चाहे जो हो, पर लोगों का भरोसा आज भी न्यायपालिका पर है. साधन की कमी न्याय में देरी की वजह है. देश की अदालतों में न्यायधीशों के हजारों पद आज भी रिक्त हैं. यह सरकार की जिम्मेदारी है कि इन पदों पर भरती प्रक्रिया शुरू हो, सक्षम लोगों का चयन हो. कोर्ट के समक्ष छोटे-मोटे विवादों की संख्या भी बढ़ी है. बहुत से ऐसे मामलों में लोक अदालतें कारगार हो सकती हैं.

बड़े बाप का बेटा होना कैसा लगता है?
लाभ है तो हानि भी है. मुझ पर आपराधिक मामला भी नहीं चलता. पर फिर लोगों का, विशेषकर से युवा वर्ग का, प्यार भी नहीं मिल पाता.

पहली कमाई का आपने क्या किया था?
पिता जी के हाथों में रख दिया. उनके चेहरे पर आये संतोष और गर्व के भाव देखकर बहुत ख़ुशी हुई थी. अब घर-खर्च में भी हिस्सेदारी निभाने लगा हूँ. बिजली और फोन का बिल का भुगतान मेरे हिस्से आ गया है.

आजकल आपके ब्लॉग में कोई नई बात नहीं आ रही है.
आजकल कोर्ट में ही व्यस्त हो गया हूँ. इसलिए बाकी गतिविधियों को ज्यादा समय नहीं दे पा रहा हूँ. जल्द ही ब्लॉग के लिए भी समय निकालने की कोशिश करूंगा.

सुना है आपने किताब भी लिखी है.
हाँ. जेल में चिंतन-मनन का मौका मिला. जेल डाईरी लिखी, जल्द ही छपेगी. इसमें जेल में मैंने जो देखा, जो महसूस किया, उसे इमानदारी से लिखा. इसके छपने के बाद हो सकता है कि बहुत से लोगों को अड़चन भी होगी. जेल में नाटक भी लिखा, और कविताएँ भी.

कोर्ट कि जिंदगी कैसी लग रही है?
रोज़गार के लिए मैंने वकालत को अपनाया है. इसलिए पूरी तन्मयता से वकालत कर रहा हूँ. पहले कानून मेरा पीछा करता था, अब मैं कानून का पीछा कर रहा हूँ. मुकद्दमे के दौरान, कठघरे में, ही मैं कानून की बहुत सी बारीकियों को जान सका. ये मेरी प्रैक्टिकल ट्रेनिंग थी. अब कोर्ट में जिरह-बहस के दौरान विशवास आता जा रहा है, सभी का सहयोग और आर्शीवाद भी मिल रहा है. वैसे वकालत मेरा पेशा है. हर वर्ग के, हर किस्म के क्लाइंट हैं. भाजपा के भी बहुत से लोग मेरे मुवक्किल हैं.

जसवंत सिंह की किताब पर आपके क्या विचार हैं?
इस किताब को मैं इतिहास मानता हूँ. ये एक शोध-परक पुस्तक है. इसे मैं आधे से ज्यादा पढ़ चुका हूँ. अडवाणी जी की आत्मकथा, My Country, My Life, भी पढ़ चूका हूँ. जसवंत सिंह जी के विचार अडवाणी जी से मेल खाते हैं.

त्यौहार कौन सा पसंद है?
होली, ईद और बड़ा दिन ख़ास तौर पर पसंद हैं. पर सभी त्यौहारों को मनाता हूँ. एक दिन का सांकेतिक रोजा रखता हूँ, जन्माष्टमी पर उपवास करता हूँ, पूरी आस्था से नवरात्रि, होली-दिवाली मनाता हूँ. मैंने प्रायः सभी धर्मों का अध्ययन किया है. सभी धर्मों के त्यौहार और सिद्धांत आपसी भाईचारे की सीख देते हैं. इसे धर्मशास्त्री गोल्डन रूल कहते हैं.

कैसा भोजन पसंद है?
लोग जिंदा रहने के लिए खाते हैं, और मैं खाने के लिए जिंदा हूँ! ("Il faut vivre pour manger et ne pas manger pour vivre": Moliere, Le Malade imaginaire) शाकाहारी और मासाहारी, दोनों का बराबर शौक है. मेरी भोजन-प्रियता देखकर पिता जी कई बार कहते हैं कि मेरी जिंदगी लंच और डिनर तक ही सीमित है. मेरी अपनी सोच है कि मैं खाने या नाश्ते की टेबल पर अपनी बात ज्यादा सही ढंग से रख सकता हूँ. आमने-सामने चर्चा यहीं अपनत्व भरे माहौल में ज्यादा आत्मीयता से होती है जबकि जनसभाओं में सीधा संवाद नहीं हो पाता. माइक के सामने खड़े होकर भाषण देने से संवाद कायम नहीं होता, एकालाप होता है. बोलना ख़त्म होते ही संपर्क टूट जाता है.

फिल्मे देखते हैं?
हाँ, मगर हिंदी के मुकाबले विदेशी फिल्मे ज्यादा देखता हूँ. नायिकाओं में वहीदा रहमान जी बेहद पसंद हैं, उनकी टाइमलेस ब्यूटी है. नायकों में बलराज साहनी जी और खलनायकों में अमरीश पूरी जी पसंदीदा कलाकार हैं.

इन दिनों आपके क्या शौक हैं?
लिखना और पेन्टिंग करना मुझे पसंद है.

अपनी विशेष उपलब्धि किसे मानते हैं?
अभी तक ऐसी कोई उपलब्धि नहीं है जो उल्लेखनीय हो.

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