Wednesday, January 29, 2020

छत्तीसगढ़ की ईस्ट इंडिया कम्पनियाँ: प्रदेश में आर्थिक असमानता की समस्या और समाधान 

दावोस चलो! 
आर्जेंटीना के सूरदास कवि जॉर्ज लूई बोर्जेस ने लिखा है कि अगर किसी चीज़ को बारीकी से समझना है तो उसे तह तक जाकर देखना होगा- उस स्थान पर जिसे वे ‘अल अलेफ’ कहते हैं। छत्तीसगढ़ की वर्तमान दशा और दिशा को समझने के लिए हमें स्विट्ज़रलैंड के छोटे से शहर दावोस जाना पड़ेगा। दुनिया भर के नेता, उद्योगपति, समाज सेवी और बुद्धिजीवी वहाँ वर्ल्ड इकनॉमिक फ़ोरम की पचासवीं वर्षगाँठ पर इक्कठे हैं। उनका मनाना है कि दुनिया की अर्थ व्यवस्था पर तीन प्रकार के ख़तरे मंडरा रहे हैं: आर्थिक असमानता की बढ़ती खाई; पर्यावरण परिवर्तन; और भारत के आर्थिक पतन के संकेत। इन तीनों का छत्तीसगढ़ पर ख़ासा प्रभाव देखने को मिलता है। आज की कॉलम में मैं पहले ख़तरे आर्थिक असमानता के छत्तीसगढ़ पर प्रभाव- और समाधान- पर चिंतन करूँगा। 

छत्तीसगढ़ की ईस्ट इंडिया कम्पनियाँ 
Oxfam द्वारा जारी एक शोध के अनुसार भारत के 63 सबसे अमीर व्यक्तियों की सम्पत्ति 2018-19 के भारत के ₹24,42,200 करोड़ के वार्षिक बजट से भी अधिक है: मतलब देश के मात्र 1% अमीरों के पास सबसे गरीब 953 करोड़ लोगों से ज़्यादा धन है। छत्तीसगढ़ में स्थिति इस से भी कहीं ज़्यादा भयावह है। प्रदेश से सबसे अधिक कमाने वाले मात्र 5 सबसे अमीर औद्योगिक घरानों की सम्पत्ति छत्तीसगढ़ के 2019-20 के ₹1,25,102 करोड़ के वार्षिक बजट से 10 गुणा- ₹10,46,500 करोड़- है जबकि देश में सबसे ज़्यादा 48% लोग हमारे प्रदेश में ग़रीबी रेखा के नीचे जीवनयापन कर रहे हैं। लेकिन देश और प्रदेश की समानताएँ यहाँ समाप्त हो जाती है: 

छत्तीसगढ़ की टॉप 5 कम्पनियाँ: 
1. लाफ़ार्जहोलसिम, जोना, स्विट्ज़रलैंड (छत्तीसगढ़ में लाफ़ार्ज, सोनाडीह; लाफ़ार्ज, रसेड़ा; लाफ़ार्ज, एरसमेटा; ACC सिमेंट, जामुल)- ₹ 3,25,000 करोड़ 
2. वेदांता समूह, लंदन (छत्तीसगढ़ में बालको, कोरबा)- ₹ 2,92,500 करोड़ 
3. आदित्य बिरला समूह, मुंबई (छत्तीसगढ़ में अल्ट्राटेक, हिरमी; अल्ट्राटेक, रवान) - ₹ 2,66,500 करोड़ 
4. जिंदल समूह- JSPL नई दिल्ली और JSW मुंबई (छत्तीसगढ़ में JSPL, रायगढ़; JSPL, तमनार; जिंदल इंडस्ट्रीयल पार्क, पूँजीपथरा; JSPL, मंदिर हसौद; JSW, रायगढ़ और मोनेट इस्पात एंड पॉवर, मंदिर हसौद)- ₹ 1,17,000 करोड़ 
5. एस्सार समूह, मुंबई (छत्तीसगढ़ में एस्सार स्टील, बैलाडिला) - ₹ 45,500 करोड़ 

टोटल: ₹ 10,46,500 करोड़ (स्रोत: फ़ोर्ब्ज़, एकनॉमिक टाइम्ज़) 

उपरोक्त सूची से स्पष्ट होगा कि जहाँ भारत के 63 सबसे अमीर कम्पनियों के व्यावसायिक मुख्यालय और अधिकांश धन भारत की अर्थव्यवस्था में ही है; वहीं छत्तीसगढ़ की 5 सबसे अमीर कम्पनियों में से एक का भी व्यावसायिक मुख्यालय और उनका प्रदेश से कमाया धन छत्तीसगढ़ की अर्थव्यवस्था का हिस्सा नहीं है। जबकि इन सभी औद्योगिक घरानों को उनकी 55-75% सम्पत्ति छत्तीसगढ़ की खनिज सम्पदा के दोहन से ही मिलती है। ये 5 सबसे अमीर कम्पनियाँ आज छत्तीसगढ़ में वही भूमिका अदा कर रही हैं जो 1765 से 1857 के बीच ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी (BEIC) ने भारत में करी थी- और जिसे इतिहासकार विल्यम डार्लिंपल ने अपनी पुस्तक ‘द ऐनारकी (अराजकता): ईस्ट इंडिया कम्पनी, कॉर्पोरेट हिंसा और एक साम्राज्य की लूट’ में BEIC के गवर्नर रॉबर्ट क्लाइव और मुग़ल सम्राट शाह आलम की जीवनी के माध्यम से बेहद मानवीय, संतुलित और संवेदनशील तरीक़े से वर्णित किया है। 

मेरा घर कहाँ है? 
मुंबई के उद्योगपति कुमारमंगलम बिरला की हिरमी और रवान (बलौदाबाज़ार) में अल्ट्राटेक सिमेंट कारख़ाने हैं। ये देश के सबसे बड़े सिमेंट प्लांटों में से दो हैं। सिमेंट बनाने के लिए क्लिंकर (बलौदा), कोयला (कोरबा) और पानी (महानदी-शिवनाथ) बिरला छत्तीसगढ़ से लेते है; लेकिन सारे टैक्स मुंबई, जहां उनका कॉर्पोरेट मुख्यालय है, में पटाते है क्योंकि GST बनाने (उत्पादन) पर नहीं बल्कि बेचने (उपभोग) पर लगता है। छत्तीसगढ़ से केवल माल निकलता है लेकिन बिकता मुंबई में है- इसलिए फ़ायदा भी केवल मुंबई को ही मिलता है। इसके बदले में छत्तीसगढ़ के दोनों राष्ट्रीय दलों के खाते में बिरला औपचारिक रूप से सबसे बड़े दानदाता बन जाते हैं (पिछले 15 सालों में कुल दान: ₹3000 करोड़, स्रोत: ADR) और छत्तीसगढ़ की जनता के खाते में दोहन, प्रदूषण और शोषण ही आते हैं। 

2020-21 में खनिज सम्पदा से रॉयल्टी, ज़िला खनिज निधि (DMF) और CSR मद- जो कि उसके कुल मूल्य का 5% भी नहीं है- को छोड़ शेष कोई भी टैक्स का लाभ छत्तीसगढ़ को नहीं मिलेगा। इस घाटे की भारत के संप्रभु निधि से पूर्ति करने से केंद्र सरकार ने पिछले महीने अपने हाथ खड़े कर दिए हैं। PRS लेजिस्लेटिव रिसर्च के एक अध्ययन के अनुसार, छत्तीसगढ़ ने 2018-19 के बजट में ₹4,445 करोड़ के राजस्व अधिशेष का अनुमान लगाया था। ये अधिशेष 2018-19 के संशोधित अनुमानों के अनुसार ₹6,342 करोड़ के राजस्व घाटे में बदल गया। मतलब 2018-19 में सीधे-सीधे छत्तीसगढ़ की जनता को खनिज सम्पदा से मिलने वाले राजस्व में ₹10,787 करोड़ का नुक़सान हुआ था। 2020-21 में ये घाटा और विकराल रूप धारण कर चुका होगा (अनुमानित घाटा: ₹24,000+ करोड़)। केंद्र सरकार और कॉर्पोरेट इंडिया की इस दुगनी मार से छत्तीसगढ़ की अर्थव्यवस्था का उभर पाना बेहद चुनौतीपूर्ण है। 

इसके लिए आख़िर दोषी कौन है? राज्य में संचालित ईस्ट इंडिया कम्पनियाँ न केवल छत्तीसगढ़ को उसके अधिकार के GST से वंचित कर रहे है बल्कि विगत 3 वर्षों में ठेके प्रथा और आउट्सॉर्सिंग के माध्यम से रोज़गार में 62.83% कटौती कर चुके हैं। ये अक्षम्य है। 

Oxfam के उपरोक्त शोध के आधार पर अनुमान लगाया जा सकता है कि अगर इन पाँच ईस्ट इंडिया कम्पनियों के सम्पत्ति करों को मात्र 0.5% (आधा फ़ीसदी) बढ़ा दिया जाता है, तो स्वास्थ और शिक्षा जैसे क्षेत्रों में बुजुर्गों, महिलाओं और बच्चों की देखभाल के लिए अगले 10 वर्षों में छत्तीसगढ़ में 11,70,000 (11 लाख 70 हज़ार) नई नौकरियाँ निकाली जा सकती हैं। लेकिन सरकारें अमीरों की सम्पत्ति पर टैक्स कम करके ठीक इसका उल्टा कर रहीं है। 

चड्डी का नाम गाड़ी... 
सरकार का मानना है कि छत्तीसगढ़ में आर्थिक मंदी का कोई प्रभाव नहीं पड़ा है। मैं उनकी बात से असहमत हूँ। मुख्यमंत्री अपने उद्योगपति-मित्रों के सामने छत्तीसगढ़ में वाहनों के विक्रय के आँकड़े प्रस्तुत करते हैं। इस आर्थिक अजूबे के मात्र दो कारण हैं: पहला, पड़ोसी राज्यों की तरह वाहनों के विक्रय पर छत्तीसगढ़ सरकार ने अतिरिक्त कर लागू नहीं किया और दूसरा, पुरानी पद्धति से निर्मित वाहनों (जिनके विक्रय को सुप्रीम कोर्ट ने प्रदूषण के कारण बड़े-बड़े शहरों में रोक दिया है) के विक्रय पर भी कोई ख़ासा रोक नहीं लगाई। लेकिन इसका कदापि ये मतलब नहीं निकाला जा सकता कि छत्तीसगढ़ में सब कुछ बढ़िया चल रहा है। 

मुख्यमंत्री के वाहनों के विक्रय के आँकड़े के सामने मैं चड्डियों और बनियानों के विक्रय के आँकड़े रखूँगा। अमरीकी केंद्रीय बैंक के कई दशकों तक प्रमुख रहे ऐलन ग्रीन्स्पैन ने एक बहुत फ़तह की बात कही है। आर्थिक मंदी के संकेत के लिए GDP, रोज़गार दर, इन्फ़्लेशन, पर कैपिटा इंकम, पर्चसिंग पावर पैरिटी इत्यादि आर्थिक सूचकांकों की जगह वे रोज़ देखते थे कि उपभोगताओं ने चड्डी और बनियान ख़रीदने में कितना खर्च किया क्योंकि कठिन समय में लोग बाक़ी चीजों में कटौती करने से पहले चड्डी-बनियान ख़रीदना बंद कर देते हैं क्योंकि ये रोज़मर्रा की ऐसी वस्तुएँ हैं जो न केवल सस्ती हैं बल्कि दूसरों को दिखाई भी नहीं देतीं। निश्चित रूप से किसी भी अर्थव्यवस्था का बेहतर दर्पण वाहनों से ज़्यादा चड्डी-बनियान की ख़रीदी-बिक्री है। 

CMAI (क्लोध्ज़ मैनुफच्तुरेर्स असोसीएशन ओफ़ इंडिया) के सबसे ताजे आँकड़ों के अनुसार जहां पूरे विश्व में पिछले 4 महीने में भारत में सबसे अधिक (50%) चड्डी-बनियान की बिक्री में गिरावट हुई है, वहीं पूरे भारत में छत्तीसगढ़ में सबसे अधिक (75%) चड्डी-बनियान की बिक्री में गिरावट हुई है। गाड़ी ख़रीदने वालों की बात मैं नहीं करता लेकिन चड्डी-बनियान पहनने वाले लोग अपने पेट को लेकर बेहद चिंतित हैं। 

गाजर और छड़ी 
अगर हम ठोस-और कठिन- कदम नहीं लेंगे, तो छत्तीसगढ़ को अपरिवर्तनीय रूप से एक गुलाम राज्य में बदलने से रोका नहीं जा सकता है। कम्पनियों को केवल हिटलरशाही से प्रेरित नहीं किया जाना चाहिए। उनको बेहतर सौदे देकर लुभाया भी जा सकता है। इसीलिए गाजर और छड़ी के बिना, हितधारक-पूंजीवाद हमेशा एक सनक और एक तुष्टिकरण तक ही सीमित रहेगा जबकि उसमें गहरे परिवर्तन लाने की आपार क्षमता निहित है। इस सम्बंध में मैं अपने दोनों सामाजिक-आर्थिक प्रेरणास्रोतों- फ़्रेड्रिक ऑगस्ट वॉन हायेक (सार: असमानता तभी ख़त्म होगी जब राज्य और समाज, दोनों मार्केट को स्वतंत्र छोड़ दे और अपना संतुलन खुद क़ायम करने दे) और टॉमस पिकेट्टी (सार: असमानता दूर करने के लिए राज्य अमीरों से 80-90% सम्पत्ति कर वसूले)- के विरोधाभासी विचारों के बीच की खाई की भरपाई करने की कोशिश भी कर रहा हूँ। 

इस कॉलम के माध्यम से मैं राज्य सरकार को 4 कदम उठाने का प्रस्ताव दे रहा हूँ: 
1. खनिज सम्पदा का टैक्स छत्तीसगढ़ को ही मिले, इसके लिए राज्य सरकार आगामी बजट सत्र में 3 बिंदुओं का क़ानून पारित करे कि 
a. सभी खनिज पदार्थों को कच्चा माल (रा-मटीरीयल) के रूप में प्रदेश से बाहर ले जाने में पूर्णत प्रतिबंध लगाया जाएगा; 
b. प्रदेश में कार्यरत सभी खनिज और खनिज-आधारित ईस्ट इंडिया कम्पनियों को अपना पंजीयन छत्तीसगढ़ में ही कराना पड़ेगा और 
 c. 90% स्थानीय लोगों को सीधे-रोज़गार और 70% स्थानीय इकाइयों को व्यावसायिक ठेके देने पड़ेंगे। इन प्रावधानों का कड़ाई से पालन हो, इसे सरकार और समाज दोनों को मिलकर सुनिश्चित करना पड़ेगा। 

2. इन तीन शर्तों के बदले में छत्तीसगढ़ को SGST (जो कि GST का आधा होता है) को 2020-21 से आधा कर देना चाहिए ताकि बाहर की कम्पनियाँ भी छत्तीसगढ़ में अपना पंजीयन करा के यहीं अपने SGST का भुगतान करे। एक साल बाद, जिस अनुपात में राज्य में पंजीकृत कम्पनियों- और उपभोग- में वृद्धि होती है, उसी अनुपात में SGST को भी और कम करते जाना चाहिए। कर-राजस्व का जो नुक़सान हमें कर की दरों को कम करने से होगा, उसकी दुगनी भरपायी छत्तीसगढ़ में कर के स्रोतों (टैक्स-बेस) को बढ़ाकर की जा सकती है। ऐसा सिंगापुर, दुबई और टेक्सस कर चुके हैं। 

3. स्टैग्फ़्लेशन से बचने- उत्पादन को बढ़ाने और महंगाई को क़ाबू करने- के लिए राज्य सरकार को अपने तीनों प्रमुख करों- पेट्रोल और डीज़ल पर कर, बिजली पर कर और आबकारी कर- को भी वर्तमान प्रचलित दरों से सीधे-सीधे आधा कर देना चाहिए। इस से और राज्यों की अपेक्षा छत्तीसगढ़ में बिजली समेत हर वस्तु की क़ीमत आधी हो जाएगी। इस से प्रदेश में उपभोग (बिक्री) में भारी वृद्धि होगी और उत्पादन और उपभोग के बीच संतुलन स्थापित हो सकेगा। 

4. साथ ही, छत्तीसगढ़ को अन्य उत्पादन-आधारित राज्यों के साथ एक पृथक आर्थिक समूह बनाकर (सुझाव: प्रडूसर स्टेट्स ओफ़ इंडिया) केंद्र को GST घाटे की भरपाई के लिए राजनीतिक रूप से बाध्य करना होगा। अमित जोगी लेखक छत्तीसगढ़ की एकमात्र मान्यता प्राप्त राजनीतिक दल जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ (जे) के अध्यक्ष हैं।
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Friday, April 05, 2019

A VIEW FROM THE STANDS

In the Great Indian election pageantry the issue is all about who controls the narrative. As I see there are two narratives: the narrative of Prime Minister Modi in which he espouses nationalism, communalism, majoritarianism; and the narrative of the Congress party that promises minimum wage guarantees, 22 lakh jobs for the youth, a separate budget for the farmers and so on and so forth. However the Congress seems to have bungled and played into the hands of the BJP when they announced rather stupidly the abrogation of the Armed Special Forces Act and sedition from the statute books. Needless to say they are seen as being soft on antinational forces. Why did they do so? Is the responsibility only of Mr P Chidambaram, its chief draftsman, I cannot say. But on the whole all this has played extremely well into the hands of the NDA: it has emboldened them to show themselves as being the sole opponents of Pakistan, of Islamic Terror and corruption. The recent activities of the ED and the courts which seem to be closing the noose around the Nehru-Gandhi family in various alleged scams notably the Augusta Westland scam, the land grabbing scams of Mr Robert Vadra may have put Congress’s first family on the back-foot. But that doesn’t mean that their spirits are in any way dampened. On the contrary, their attacks against Mr Modi - chowkidar chor hai- have become even more acerbic but given Mr Modi’s art of turning everything to his advantage, that too might end up boosting Mr Modi’s Main Bhi Chowkidar image building. The only thing going for the Congress right now is its victory in the three states in December last year and its economical surgical strike in terms of NYAY of giving Rs.6000 per month to 20% of India's poorest. If that works for the Congress, it could work wonders. Otherwise everything stands against the Congress. My argument in favour of a third front government is based on the premise that the three largest states of India Uttar Pradesh, Bihar and West Bengal do not see the two dominant National parties performing well at all. In fact it is the regional parties the SP-BSP-RLD coalition in UP, the RJD-dominated coalition in Bihar and the TMC in West Bengal that will effectively put paid to the BJP's national ambitions of forming a majority government on its own strength. As far as South India is concerned there is no doubt that Kerala will go in the way of the UPA, be it LDF or UDF; there is no doubt that there will be a tough contest in Karnataka between the NDA and the UPA; as far as Tamil Nadu is concerned I strongly feel that the DMK-Congress alliance will have an edge over the AIADMK-BJP alliance; the TRS and YSR-Congress, who will dominate Telangana and Andhra, will, in the end, want an elevated role in a third front government but if pushed against the wall, prefer the NDA over the UPA. On the whole the South seems slightly more inclined towards the UPA. Gujarat and to a lesser degree Maharashtra, despite impressive attacks by Congress, will once again support the Modi-Shah combine. In Madhya Pradesh and Rajasthan, the BJP have made great recoveries. It is only in Chhattisgarh where the BJP has lost all hope that the Congress stands a chance of a 10 to 1 victory- but that would depend on the Modi factor. In this election there is no BJP, there is only the Modi factor. Mr Modi has presented himself quite successfully- if not entirely accurately- as a world leader who can take on Pakistan, who can take on corruption, who can take on the establishment, who can take on the terrorists and all of this seem to be playing into the ultra-patriotic, ultra-nationalistic narrative espoused by the BJP. The Congress, through sheer stupidity, is falling into its trap. Their Manifesto promise to scrape the Armed Special Forces Act, to scrape laws against sedition, have only served to paint Congress as a pro-terrorist, pro-Pakistan party. It is most unfortunate because nothing could be farther from the truth. The media as far as I see it and specially the electronic media, with minor exceptions, are totally one-sided. The projections that are being made out are overwhelmingly in favour of the NDA and the BJP and they do not reflect ground realities as far as Chhattisgarh is concerned. The way things are moving, the mainstream media, armed with infinite powers of information-dissemination and opinion-formation that technology has put at its disposal, has replaced party structures as the main vehicle for publicity and propaganda. That media, with minor exceptions, now plays into the hands of government and so the political propaganda machinery of respective political parties, specially non-cadre based parties, is becoming increasingly redundant, at best playing second fiddle to media. In areas where caste still dominates, social and regional assertions may well keep Mr Modi at bay. But as far as the Congress is concerned, its attempt to place itself as a viable alternative to the BJP in the national narrative doesn't seem to be working out. Mr Modi has an edge. It cannot be denied. Mr Rahul Gandhi despite his many metamorphoses over the last two years to become A Serious Man continues to disappoint. Never before have the elections been so bitter, so personal, and that is very sad for the country. Statesmanship has given way to petty petty politicking and that is indeed shameful and demeaning for India. One can only hope that once this election is over and done with, the leaders who have won and the leaders who have lost will come and sit together, settle their personal differences and take forward this nation into the bowels of the 21st century.
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Sunday, January 11, 2015

Goa 2015





Richa and I with Sandeep and Seema Sahu take-in Goa's less-populated northern beaches from the sea: this is us sailing the azure Arabian Sea aboard Sanjay Bhambri's newly-acquired catamaran. We start from the relatively calm Chapora before hitting choppy sea waters brimming with flying mackerels. After passing Morjim, Ashwem and Mandrem, we disembark atop a slightly-smelly fishing boat to land on the pristine shores of Arambol just in time to witness an almost perfect sunset!
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Thursday, March 28, 2013

अपनी तकदीर के मालिक बनो, छत्तीसगढ़!

मेरे पिछले लेख से अब तक एक साल बीत चुका है। न लिख पाने के कारण प्रत्यक्ष रूप से दिखाई देते हैं।


पिछले ढाई सालों में मैंने लगातार दौरे किये हैं: लगभग दो हज़ार किलोमीटर की पदयात्राएं करी और दो लाख किलोमीटर से भी ज्यादा का दौरा गाड़ी से किया। इस दौरान चार हज़ार से भी ज्यादा छोटी-बड़ी जन सभाओं को संबोधित किया। छत्तीसगढ़ के प्रत्येक जिले व ब्लाक मुख्यालयों में कम से कम दो सौ बार गिरफ्तार हुआ, अश्रु-गैस और पानी की बौछारें छोड़ी गयी, लाठी चार्ज किया गया।

इन सब के ऊपर, १५ महीनों से मेरे साथ वैवाहिक बंधन में बंधी मेरी जीवन-संगिनी ऋचा को न केवल मेरी लगातार अनुपस्तिथि का सामना करना पड़ा है वरन जो सीमित मौकों पर मैं उनके साथ रहता हूँ, उन मौकों पर भी वैवाहिक जीवन के लिए जरुरी व्यक्तिगत समय में लगातार होती घुसपैठ से भी जूझना पड़ा है। ऋचा ने मेरी विवशता को समझते हुए अभी तक हर समय मुझे अपना पूर्ण सहयोग प्रदान किया है। मेरी नज़र में यह समतापमंडलीय सहिष्णुता ही उनकी सबसे बड़ी विशेषता है जो वाकई काबिलेतारीफ है। ऋचा के द्वारा मुझे मिलने वाले निरंतर सहयोग के लिए मैं उनका दिल से आभारी हूँ। मैं स्वयं को बहुत ही भाग्यशाली समझता हूँ एवं ईश्वर को धन्यवाद देता हूँ कि मुझे ऋचा के रूप में ऐसी अद्भुत, जिम्मेदार और विनम्र स्वभाव वाली सर्व-गुण संपन्न पत्नी मिली है।

राजनीति, मेरी नज़र में, व्यक्तियों पर केन्द्रित न होकर मुद्दों पर केन्द्रित होनी चाहिए- विशेषकर ऐसे मुद्दे जिनका सीधा-सीधा  असर जनता पर पड़ता है।  जैसे राज्य सरकार का:
i . शक्तिशाली औद्योगिक दल्गोष्टों के दबाव में आकर लोगों को अपने घरों से बेदखल कर देना;
ii . लोगों के जीवन के अधिकार की रक्षा करने में नाकाम होना- यहाँ मै निम्नलिखित तीन अधिकारों की बात कर रहा हूँ: 
अ. स्वयं की प्राण रक्षा का अधिकार;  
ब. दूसरे के द्वारा स्वयं का लगातार बलात्कार न होने का अधिकार;  
स. जहरीली हवा व पानी से स्वयं की मौत न होने का अधिकार;
iii. जनता को मूर्ख समझकर उनके साथ बार - बार विश्वासघात करना;
iv. ढिठाई से अवैध वसूली में लग जाना और राजकीय कोष को लूट लेना;
v. पूर्वजों द्वारा चिरकाल से सावधानीपूर्वक  सहेज कर रखी गयी  प्रदेश की भूमि और उसकी प्राकृतिक सम्पदा को बाहर वालों को कम दामों में बेच देना;
vi. जिन चीज़ों पर कोई शुल्क न होना चाहिए ऐसी चीज़ों पर यहाँ के रहवासियों को उनके वास्तविक मूल्य से भी ज्यादा की वसूली करना;
vii. जानबूझकर लोगों को अपनी पत्नी और परिवार को प्रताड़ित करने वाले शराबी में तब्दील कर देना।

मेरी नज़र में ये 'अस्तित्वात्मक मुद्दे' इस बात से कहीं ज्यादा महत्व रखते हैं की कौनसा व्यक्ति किस ओहदे पर बैठता है। 
मेरा मानना है कि यदि मैं छत्तीसगढ़ की जनता, विशेषकर इसके युवाओं, में ऐसी जागरूकता ला सकूँ जिससे वे अपने प्रारब्ध को हासिल करने के लिए उठ सकें, तो मैं समझूंगा की मेरी राजनीति अपने लक्ष्य में सफल रही।

(मैं अतुल सिंघानिया का इस अनुवाद के लिए आभारी हूँ।)

अमित ऐश्वर्य जोगी
२७ मार्च २०१३
नई दिल्ली 
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Wednesday, March 27, 2013

Carpe Diem, Chhattisgarh!


It’s been a year since my last post. The reasons are obvious.

During the last 2½ years, I’ve been travelling relentlessly, by foot (almost 2000 kilometers) and by car (more than 200,000 kilometers). I’ve addressed more than 4000 public meetings, both large and small. I’ve been arrested, tear-gassed, water-cannoned and baton-charged at least 200 times in every district and block headquarters of Chhattisgarh.

And to top it all, Richa, my poor wife of fifteen months- whose greatest attribute, according to me, has been her stratospheric tolerance- has not only had to put up with my constant absences but also the increasing invasions of our fast-shrinking marital space on the rare occasions that I’m around.

Politics, for me, isn’t so much about persons as it is about issues. In particular, those issues that affect citizens most directly: like when the state uproots them from their homes and hearths at the behest of powerful industrial lobbies; when it fails to protect their right to life- their right not to get killed, their right not to get raped repeatedly, their right not to die of poisonous air and water; when it time and again betrays their faith, taking them for fools; when it brazenly turns into an extortionist and a robber of the state-exchequer; when it under-sells to outsiders the land and its untold natural wealth, which their ancestors had so carefully preserved for them since time immemorial; when it over-charges them for things they shouldn’t have to pay for at all; when it willfully tries to turn an entire people into a generation of wife-beating drunks. To me, these ‘existential issues’ are infinitely more important than who occupies what position.

If I can, in some small way, contribute to an Awakening whereby the people of Chhattisgarh, especially its Youth, rise up to take charge of their destinies, I think my politics would have served its purpose.

Amit Aishwarya Jogi
March 27, 2013

  
          
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Monday, April 16, 2012

युवा कांग्रेस और NSUI में चुनाव: बदलाव बेहतर होगा



नोट: मैं अतुल सिंघानिया का आभारी हूँ जिन्होंने इस लेख का हिंदी अनुवाद किया है. 

उत्तर प्रदेश और पंजाब में हुए विधानसभा चुनावों के पश्चात, बहुत लोगों ने NSUI और युवा कांग्रेस के पदों के लिए कराये जा रहे चुनावों की उपयोगिता पर सवाल उठाने शुरू कर दिए हैं. लोगों का मत है कि इन संस्थाओं में चुनाव तीन कारणों से उपयोगी नहीं रहे हैं -

 i. चुनाव अपनी ही पार्टी के लोगों में आपसी वैमनस्यता बढ़ा कर कटुता पैदा करते हैं. 
ii. जीते हुए प्रत्याशी को किसी को भी पुरस्कृत या दण्डित करने का कोई अधिकार नहीं होता. इस वजह से उनकी कोई नहीं सुनता. सर्वोच्च अधिकार मुख्य रूप से नियुक्त की गयी केन्द्रीय कमिटी के पास होता है. 
iii. चुनाव चयनित पदाधिकारियों के मन में महत्वाकांक्षाएं बढ़ा देते हैं: उन्हें ऐसा लगने लगता है कि चुनाव जीत जाने से उन्हें आम चुनाव में पार्टी टिकट पर चुनाव लड़ने का अधिकार मिल जाता है. ये महान महत्वाकांक्षाएं बहुत ही कम पूरी होती हैं.

मैं चुनाव करवाने के पूरी तरह से पक्ष में हूँ. महान विंस्टन चर्चिल के शब्दों में व्याख्या करें तो "चुनाव करवाना युवा कांग्रेस को चलाने के अन्य सभी अजमाए हुए तरीकों से कम ख़राब विकल्प है." सबसे उपयुक्त व्यक्तियों को चुनने के लिए इससे बेहतर कोई भी तरीका नहीं हो सकता. मेरा मत है कि इस प्रकिया में गलती यह है कि चुनाव अपने आप में चयनित पदाधिकारियों को अधिकार नहीं देते. इसके विपरीत चुनाव यह सुनिश्चित करते हैं कि चुने हुए पदाधिकारी आपस में एक दूसरे के प्रति पहले ही दिन से गहरा अविश्वास करते हैं: या तो वे एक दूसरे के विरोध में काम करते हैं या काम ही नहीं करते.

हमारे सिस्टम में ऐसा कुछ भी नहीं है जिससे कि प्रत्याशियों में चुनाव के बाद वापस रिश्ते सामान्य हों. रिश्ते सामान्य होने से मेरा मतलब यह नहीं है कि उन लोगों के बीच फिर से स्नेह और प्यार बहाल हो जाए. जो प्रक्रिया जीत और पराजय निश्चित करवाती है, उससे यह अपेक्षा रखना कुछ ज्यादा ही हो जाएगा. लेकिन रिश्ते बहाली से यह जरुर अपेक्षा की जा सकती है कि एक अच्छा "कामकाजी सम्बन्ध" बनाया जाए जो पार्टी के हित में हो. यह तभी संभव है जब हम उस पदानुक्रम को स्वीकार करें जो चुनाव की वजह से उत्पन्न होता है.

चुनाव द्वारा हमारे युवा नेताओं को चुनना यदि सबसे उपयुक्त तरीका न भी हो तब भी निसंदेह ही सबसे कम बुराइयों वाला तरीका है. लेकिन इसमें दिक्कत जो मुझे समझ में आती है वह यह है कि चुने हुए लोगों को जवाबदारी तो पूरी सौंप दी जाती है लेकिन उन जवाबदारियों को निभाने के लिए कोई भी अधिकार नहीं दिए जाते. कोई भी प्रबंधन का छात्र यह भली भांति जानता होगा कि यह तरीका बर्बादी की राह पर ले जाता है. वर्तमान व्ययस्था में चुने हुए लोगों से अधिकार लेकर अचयनित और नियुक्त की गयी केन्द्रीय कमिटी के हाथों में दे दिए जाते हैं.

इस समस्या को दो तरह से सुलझाया जा सकता है:
i. केंद्रीय कमिटी जो सबसे ऊपर रहती है उसके भी चुनाव करवाए जाएँ.
ii. राज्य से लेकर पंचायत स्तर तक हर जगह चुने हुए कमिटी के मुखिया को यह अधिकार दिए जाएँ कि वे अपने साथ काम करने वाले सदस्यों की नियुक्ति कर सकें और उन्हें अनुशाशन में रख सकें. मुखिया को यह बुनियादी अधिकार दिए बिना अनुशासनहीनता की समस्या जस की तस बनी रहेगी. कमिटी के अध्यक्ष को यह अधिकार होना चाहिए कि वह अपने हिसाब से कम से कम पांच सचिवों की नियुक्ति कर सके (बशर्ते वे कुछ तय किये गए मापदंडों में खरे उतरते हो) और कमिटी के बाकी चुने हुए सदस्यों पर अध्यक्ष जरुरत पड़ने पर अनुशासनात्मक कार्यवाही कर सके (जो कि एक खुली प्रक्रिया के तहत हो और जिसमे सदस्य के पास अपील का अधिकार हो).

जहाँ तक विजयी प्रत्याशियों में बढ़ी हुई महत्वकांक्षा का सवाल है, यह काफी स्वाभाविक है. लेकिन संगठनात्मक चुनाव में विजय प्रत्याशी को आम चुनाव में पार्टी टिकेट का न तो हकदार बना सकती है और न ही बनाना चाहिए. उसके प्रदर्शन का मूल्याँकन करने के लिए विषयनिष्ठ पैमाने तय किये जाने चाहिए"पहचान" केवल सैद्धांतिक प्रतिरूप बनकर नहीं रह जाना चाहिए: इसका सीधा सम्बन्ध टिकट आबंटन से होनी चाहिए. दुर्भाग्यवश इन चुने हुए पदाधिकारियों को कोई अधिकार न देना- और उन्हें ऐसे लोगों के प्रति उत्तरदायी बनाना जो खुद चयन से न आकर नियुक्ति प्रक्रिया से आये हैं- पदाधिकारियों को अपनी पूरी क्षमता से काम करने से मुश्किल कर देता है. मुझे विश्वास है कि पदाधिकारियों को अधिकार मिलने के बाद उनका प्रदर्शन बहुत हद तक सुधरेगा. और सब कुछ ठीक तरह चलने से वे लोग समय के साथ पार्टी टिकट के स्वाभाविक दावेदार होंगे. उन्हें बस संयम बरतना और सही समय का इंतज़ार करना सीखना होगा.

जहाँ तक चुनाव के समय का सवाल है, उत्तरप्रदेश, पंजाब, झारखण्ड और बिहार ने हमे यह सिखाया है कि सबसे उपयुक्त होगा अगर NSUI और युवा कांग्रेस के संगठन के चुनाव विधान सभा चुनाव या आम चुनाव के कम से कम दो साल पहले करवाए जाएँ. इससे सम्बंधित राज्य कमिटी या केंद्रीय कमिटी को काम करने के लिए उनके तय कार्यकाल की पूरी अवधि मिलेगी. इसका फ़ायदा यह भी होगा कि संगठनात्मक चुनाव के दौरान उत्त्पन्न हुई कटुता को नरम पड़ने के लिए समय मिल जाएगा और चयनित कमिटियों को अपनी उपयोगिता साबित करने का पूरा अवसर मिलेगा.

युवा कांग्रेस के चुनाव की पद्धति में लगातार फेरबदल हुए हैं:
i. पहले विधानसभा कमिटियों के लिए सीधे चुनाव होते थे, उसे बदल कर पंचायतों और वार्डों के डेलीगेट को अपना विधानसभा अध्यक्ष चुनने का अधिकार दिया गया (जिससे कि युवा कांग्रेस सदस्यता अभियान ग्रामीण क्षेत्रों तक पहुँच सके).
ii. पहले पंचायत स्तर के डेलीगेट विधानसभा और लोकसभा कमिटी चुनते थे, और यह कमिटियाँ फिर राज्य की कमिटी चुनती थी (चरणबद्ध तरीके से मतदान). इसे बदल कर एक ही चरण में मतदाताओं द्वारा एक साथ विधान सभा, लोक सभा और राज्य की कमिटियों की चुनाव प्रक्रिया निर्धारित करी गयी. ऐसा इसलिए किया गया जिससे कि डेलीगेट की खरीद फरोक्त को जहाँ तक संभव हो रोका जा सके और यह सुनिश्चित किया जा सके कि जिस प्रत्याशी का सबसे ज्यादा प्रभाव और संजाल है वह चुनाव जीते.
iii. सबसे ताजे बदलाव में पंचायतों और वार्डों की जगह मतदान बूथों को मूलभूत निर्वाचक इकाई बनाया गया है (जिससे कि संगठनात्मक चुनावों को आम चुनाव की पद्धति पर लाया जा सके और बेहतर बूथ स्तर का प्रबंधन सुनिश्चित किया जा सके).

परिवर्तन- मौजूदा प्रक्रिया की कमी को पहचानना और उसमे सुधार करना- हमारी सबसे बड़ी ताकत है. लेकिन अभी तक सारे परिवर्तन चुनाव करवाने की प्रक्रिया तक ही सीमित रहे हैं. समय आ गया है कि परिवर्तन के सिद्धांत को चुनी हुई कमिटियों की कार्यप्रणाली पर लागू किया जाए. और जो संस्था इन परिवर्तनों को लागू करती है उसमे भी परिवर्तन किया जाए. इसमें कोई संदेह नहीं कि फेम एक बहुत ही इज्ज़तदार संस्था है लेकिन वह पूरी तरह से गैर राजनितिक है. इस वजह से कई बार राजनैतिक कारणों को पूरी तरह से नज़र अंदाज़ कर दिया जाता है. हाल ही में फेम द्वारा उठाये गए कदमो पर मनमानी और गुपचुप तरीके से बिना पारदर्शिता के काम करने के आरोप लगे हैं. (उदाहरण के तौर पर हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक युवा कांग्रेस के चुनाव में विजयी प्रत्याक्षी को अयोग्य घोषित करना और पुनः चुनाव करवाने के पीछे जो आधार दिया गया था, उसे फेम द्वारा छत्तीसगढ़ में पिछले NSUI चुनावों के दौरान पूरी तरह से नज़र अंदाज़ कर दिया गया.)

इसका कारण जो मुझे समझ में आता है वह यह है कि चुनाव आयोग जो भारत में आम चुनाव करवाता है उसके सारे निर्णय न्यायिक समीक्षा के दायरे में आते हैं लेकिन फेम द्वारा लिए गए किसी भी निर्णय को न्यायिक समीक्षा की परिधि से बहार रखा गया है. ऐसा करने के पीछे मुख्य कारण यह है कि न्यायिक समीक्षा से पार्टी के भीतर अनुशासनहीनता फ़ैल सकती है. यदि पार्टी इस नियम को हटा दे तो मुझे विश्वास है कि फेम पर यह आरोप लगने कम हो जायेंगे. मुझे यह भी विश्वास है कि फेम को पार्टी द्वारा ऐसा करने में कोई भी आपत्ति नहीं होनी चाहिए.

हमे यह नहीं भूलना चाहिए कि हम एक राजनैतिक संस्था हैं जिसका मुख्य उद्देश्य चुनाव जीतना है.  इसलिए सर्वोच्च संस्था द्वारा लिए गए सभी निर्णय राजनैतिक होने चाहिए. एक पूरी तरह से गैर-राजनैतिक संस्था- जो हो सकता है कि हमारी विचारधारा से सहमत न हो और हमारे राजनैतिक हितों से भी मेल न खाती हो- के हाथों में स्वयं को पूरी तरह से और निशर्त सौंप देना कहीं न कहीं अपने राजनैतिक चरित्र के साथ समझौता करना है. फेम के पास नियमो को लागू करने का सर्वोच्च अधिकार होना चाहिए लेकिन उन नियमों को बनाने का, उनमे बदलाव करने का और नियम को हटाने का अधिकार सिर्फ और सिर्फ एक ऐसी हस्ती को होना चाहिए जो पूर्ण रूप से हमारी विचारधारा के प्रति समर्पित हो और पार्टी हित ही जिसका एकमात्र उद्देश्य हो.

अंततः मैं यह स्पष्ट करना चाहता हूँ कि मैं एक क्षण के लिए भी यह नहीं कह रहा कि मेरे द्वारा यहाँ दिए गए सुझावों का आँख मूँद कर अनुसरण किया जाए. मैं सिर्फ यह उम्मीद कर सकता हूँ कि इस लेख में मेरे द्वारा उठाये गए मुद्दे कांग्रेस पार्टी के युवाओं के लिए विस्तृतसंवाद के शुरवाती बिंदु बनें. ऐसे समय में, जब बेंजामिन फ्रैंकलिन के शब्दों में "हम सब को एक ही बंधन में रहना चाहिए अन्यथा निश्चित रूप से हम सब अलग-अलग सूली पर लटके नज़र आयेंगे."

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Friday, April 13, 2012

On Elections in Youth Congress and NSUI: Change Will Do Us Good

In the aftermath of assembly elections in Uttar Pradesh and Punjab many have begun to question the “usefulness” of holding elections in the Youth Congress and NSUI. According to them, elections have proved counter-productive for three reasons. One: they increase bitterness among people belonging to the same party by intensifying rivalries. Two: those who end up winning have little or no authority either to reward or to punish and consequently no one listens to them. Ultimate power continues to be vested in a predominantly nominated National Committee. Three: they heighten expectations among elected office-bearers- that winning elections somehow entitles them to contest on a party ticket in a general election- and these “great expectations” are seldom fulfilled. 

For the record, I am all for holding elections. To paraphrase the great Winston Churchill, “election is the worst form of running the Youth Congress except all the others that have been tried.” As a way of picking the best persons for the job, there can be no better method. The fault, if I may use that word, lies with the fact that elections in themselves do nothing to empower those elected. On the contrary elections ensure that those who come to constitute elected committees harbor deep-rooted distrust for each other from day one. They either work against each other or not at all. 

There is nothing in our system to ensure a return to truce after elections are over and done with. By truce I don’t mean a re-kindling of affection. That might be a bit too much to expect from a process necessarily designed to produce winners and losers. What one can expect however by way of a truce is a “working relationship”: a relationship that works for the greater benefit of the party. This can only be realized by recognizing- and legitimizing- the Hierarchy that elections give rise to. 

Democracy in the form of election is undoubtedly the least worst if not the best way of selecting our youth leadership. But the problem, as I see it, is that those elected are entrusted with all the responsibility without having any authority to discharge those responsibilities. This, as any management student knows only too well, is a recipe for disaster. As it is, authority is taken away from those elected and placed into the hands of an entirely unelected and anointed National Committee. 

This can be remedied in two ways. One: by having an elected National Committee at the top. Two: by giving those elected as heads of committees at various levels (from state to panchayat) the power to appoint and discipline those who are supposed to work with them. Without this most basic power, they will continue to have no authority. Presidents of committees, I would suggest, must have the power to appoint at least 5 secretaries of their choosing (provided of course they fulfill certain norms); and to initiate disciplinary action (subject to procedure and open to appeal) against the rest. 

As far as increased expectations among those elected (in particular the winners) goes, it is only natural. But the mere fact of winning cannot and should not entitle them to a party ticket in a general election: that would depend a lot more on their performance once they have won and gotten elected. There must be an objective criteria for evaluating this performance. "Pehchan" mustn't remain merely a theoretical model: it must be linked directly to ticket-allocation. Unfortunately the fact that they have no authority- and must answer to those who have themselves not been elected- makes it difficult for them to perform to their fullest capacity. Once they have that authority, I sincerely believe, their performance is bound to improve leaps and bounds- and if all goes well, they would in due course emerge as the natural choice for party tickets. All they have to learn then is to be patient and bide for time. 

And while on the subject of time, what UP and Punjab- as also Jharkhand and Bihar- have specifically taught us is that it would be best if the timing of election was so adjusted that it precedes a general and assembly election by a period of not less than two years, i.e. one full term of a committee’s lifespan in the case of national and state committees respectively. This way the bitterness that elections give rise to would have had time to mellow down and the elected committees had time to prove their full worth. 

The way elections have been held in the Youth Congress have regularly undergone changes in the past: direct elections for assembly committees gave way to panchayat and ward level delegates electing them (this was done to increase the geographic spread of membership to rural areas); multi-tier level of electors (with panchayat-level delegates electing assembly and Lok Sabha committees and they in turn voting for the state committee) gave way to a single tier of electors simultaneously voting for assembly, Lok Sabha and state committees (to minimize horse-trading of delegates and also to ensure that those with widest appeal- and network- get elected); and most recently polling booths have replaced panchayats and wards as fundamental electoral-units (to bring organizational elections in line with general elections and ensure better booth-level management). 

Change- the ability to identify shortcomings and improve- therefore continues to be our greatest strength. But thus far all changes have been restricted only to way elections are held. The philosophy of change must perforce now be applied to the way elected committees function. And the agency for applying those changes too must undergo a change. FAME is a widely respected institution no doubt but it is totally non-political. Political considerations are sometimes totally overlooked and its actions have of late become open to allegations of arbitrariness and inquisitorialness. (For instance: the ground cited for disqualification and re-election in Youth Congress elections in Himachal Pradesh and Karnataka was totally ignored by FAME in the last NSUI election in Chhattisgarh.) 

The reason, I believe, is that unlike the decisions of Election Commission of India responsible for conduct of general elections, the decisions taken by FAME are not subject to judicial review for fear that they might constitute party indiscipline: if this impediment were to be removed, by the party itself, I am sure that instances of these allegations would reduce considerably. I am also sure that this is something FAME should have no reason to object to. 

We must not forget that we are after all a political body in the business of winning elections. Decisions at the top must therefore always remain political. By subjecting ourselves utterly and unconditionally to a non-political authority that might not necessarily subscribe to our ideology- or even share our interests- we tend to compromise our political character. FAME should remain the appellate rule-enforcing body; but the rules themselves should be made- and unmade- by a political entity totally and unquestionably committed to our ideology and whose only guiding principle is party-interest. 

Before parting, let me clarify that I am not for one minute advocating that the suggestions made here should be followed blindly. All that I can reasonably hope for is that the issues raised by me in this note might act as a starting point for a more comprehensive debate among the youth of Congress party at a time when, in the words of Benjamin Franklin, “we must, indeed, all hang together, or assuredly we shall all hang separately.” 
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