Sunday, October 28, 2007

A Body in Raigarh

Various television news channels are carrying reports on "the discovery of a body in Mr. Ajit Jogi's house at Raigarh." To set the record straight, I would like to submit the following: Read More (आगे और पढ़ें)......

Saturday, October 20, 2007

Happy Vijay Dashmi (in Chhattisgarhi): तीन मूढ़ी के रावण

विजय दशमी के पावन तिहार मोर कोति ले गाड़ा-गाड़ा भर सुभकामनाआज के दिन अब्बड़ खुसी के दिन हवेआज के दिन भगवान राम दस मूढ़ी के रावन के नास करे रहिस

आज के जुग रावन काला हे? सिरतोन गोठ ये हे, के आज के जुग के रावण के तीन मूढ़ हवेओखर पहिली मूढ़ बेरोजगारी हे; दूसर मूढ़ नशा हे; अउ तीसर मूढ़, हमर मन जेन नफरत होते, वो हेये तीन मूढ़ी के रावन हमन नौजवान मन बरबाद करत हे

ओखर भस्काये बर, हमन एक होना परहीजेन उत्साह के संग हमन नवरात्री माता के पूजा करथे, उहू उत्साह के संग अपन सरकार हमला कामबूता देबर मजबूर करे बर परही, जेकर हमन सम्मान के संग अपन जिनगी गुज़ारा कर सकननशा नास करे बर हमला प्रतिज्ञा करे परही के आज ले हमन चेपटी के चपेट नई आवनअउ जब हमन अपन-अपन मोहल्ले अब्बड़ बड़े ले रावण मारथे, उहू टाइम हमन अपन भीतर के नफरत खत्म करबो, ऐसन हमला संकल्प लेवन हवे

तभे जेन सपना हमर पुरखा मन हमर छत्तीसगढ़ राज बर देखे रहिस, ओला हमन साकार कर सकन

अमित जोगी
रायपुर, २०.१०.२००७

Wednesday, October 03, 2007

सवाल

ख़बरों में रहकर भी

खुद से बेख़बर क्यों हूँ मैं?


अमित जोगी
देवभोग, .१०.२००७

Monday, October 01, 2007

गांधी जयंती पर

I
कामुकता पे काबू
दो अक्टूबर को हम गांधी जयंती के रूप में मनाते हैं। ये मात्र एक औपचारिकता बन चुकी है। हाँ, पिछले साल लगे रहो मुन्ना भाई फिल्म ने गांधीगिरी को कुछ दिनों के लिए ही सही, लोकप्रिय तो कर दिया था। युवा वर्ग इससे खासा प्रभावित होता नज़र आया। यहाँ छत्तीसगढ़ में भी गान्धीगिरी की चंद वारदातें हुईं। छात्र नेताओं ने खुद की गन्दी नालियाँ साफ करते हुये फोटो अखबारों में छपवाई। भ्रष्ट कर्मचारियों को फूलों के गुच्छे भेंट किये गए। लेकिन फिल्मों का असर आखिर कितने दिन रहता? धीरे धीरे हम सब भूल गए।

गलती हमारी नहीं है। गांधी जी को उनके जीवनकाल में ही देवता बना दिया गया था। वे एक इन्सान भी हैं, इस बात को भुला दिया गया। उनकी सभी बातें, उनके सिद्धांत, सब अव्यवहारिक लगने लगें। अल्बेर्ट आइंस्टाइन का वो कथन कि आने वाली पीढियां कम ही विश्वास कर पाएंगी कि हाड़ और मांस का ऐसा आदमी पृथ्वी पर कभी चला था, सच सिद्ध हुआ। आज अगर सरकार को राम सेतु की तर्ज़ पर गांधी के ऐतिहासिक अस्तित्व को प्रमाणित करना पड़े, तो शायद ऐसा कर पाना मुश्किल होगा। जो लोग मोहनदास करमचंद गांधी की मानवता से परिचित हैं, वे उसे बयां करने से इसलिये कतरातें हैं कि कहीं उन पर देशद्रोह का आरोप न लग जाये?

ये सोच गलत है। अगर गांधी जी को आज के युग के लिए प्रासंगिक बनाना है, तो उनकी मानवता को एक पौराणिक कथा बनने से बचाना होगा। युवाओं को उनके जीवन के ऐसे पहलुयों से वाकिफ करना पड़ेगा जो इस बात का एहसास दिलाएं कि बापू पहले उनके जैसे ही एक इन्सान थे; महात्मा बाद में बनें। इस बात का सबसे पुख्ता प्रमाण उनकी गुजराती में लिखी जीवनी
सत्व नू प्रयोग अथवा आत्मकथा में मिलता है। ये दीगर बात है कि इसका अंग्रेज़ी अनुवाद करते समय उनके लंबे अर्से तक निजी सचिव रहे, महादेव देसाई, ने काफी सारी बातों को संशोधित कर दिया, शायद ये सोचकर कि उनका गलत निष्कर्ष निकाला जाये। इन बातों का वर्णन आधुनिक मनोवैज्ञानिक सुधीर कक्कर के भारतीय लिंग-भेद (इंडियन सेक्शुअलिती) पर लिखे शोध में विस्तार से पढ़ने को मिलता है।
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