पिछले महीने का अधिकांश हिस्सा एक दूसरे पर उँगलियाँ उठाने में ही बीत गया. एक पार्टी की तरह हमें इस बात पर ध्यान देना चाहिए था कि हमारे हार के लिए कौन से कारक उत्तरदायी हैं लेकिन हमने इस बात पर ध्यान दिया कि किस पर आरोप मड़े जा सकते हैं. ऐसी सोच के द्वारा अपने राजनैतिक विरोधियों से हिसाब तो चुकता किया जा सकता है लेकिन साथ ही साथ इससे आगामी लोक सभा चुनावों में पार्टी की संभावनों पर विपरीत प्रभाव भी पड़ रहा है. मेरे दृष्टिकोण से प्रमुख रूप से पाँच कारक हैं (बस्तर में पार्टी का सफाया, सतनामियों की संगठन में उपेक्षा, राकपा से गठबंधन, टिकट वितरण में देर, और "जोकोछो" नीति):
अ. बस्तर में पार्टी का सफाया
पहला और सबसे प्रमुख कारण बस्तर के आदिवासी अंचल में हमारा पूरी तरह से सफाया हो जाना है, जहाँ हम बारह सीटों में से ग्यारह में हार गए. इसके दो कारण हैं. एक, गलत उम्मीदवारों का चयन. उदाहरण स्वरुप इन चार मामलों पर गौर करें:
१. एक महिला १९९० से लगातार चुनाव हार रही है. जिन चार चुनावों में उन्हें टिकट दी गई उनमें से दो में उनकी जमानत भी जप्त हो गई. उनके सगे भाई अपने गाँव में सरपंच चुनाव हार गए; जनपद चुनाव में उनकी बहु की भी जमानत जप्त हो गई. इन सब के बावजूद उन्हें पांचवी बार कांग्रेस के उस दावेदार की टिकट काट कर उम्मीदवार बनाया गया, जो पिछला चुनाव मात्र १००० वोटों से हारा था, और चुनाव हारने के बावजूद क्षेत्र में विपक्ष में सक्रिय भूमिका निभाता रहा.
२. नारायणपुर विधान सभा क्षेत्र में भानपुरी, मर्देपार और नारायणपुर, ये तीन ब्लाक आते हैं. भानपुरी और मर्देपार में १,३०,००० से अधिक मतदाता हैं; नारायणपुर इन दोनों ब्लाकों से १५० किलोमीटर से अधिक की दूरी पर हैं, और घने जंगलों में नक्सली प्रभावित क्षेत्र में हैं जहाँ सिर्फ़ १३००० मतदाता हैं. हमने नारायणपुर के व्यक्ति को टिकट दी.
३. बसपा और भाजपा के बाद हाल ही में वापस लौटे एक आदतन दल बदलू नेता जिन्होनें दल बदल के इस दौर में लड़ा गया हर चुनाव हारा है, उनकी दिल्ली में रहने वाली ऐसी बिटिया को टिकट दे दी गई जो स्थानीय बोली का एक शब्द भी नहीं बोल सकती थी.
४. एक सीट में जैन मतदाताओं की संख्या सिर्फ़ ५०० है, हमने यह जानते हुए भी कि भाजपा का उम्मीदवार भी इसी समुदाय से है, एक जैनी को उम्मीदवार बनाया.
यह बेहद स्पष्ट है कि इन चारों मामलों में हमारा चयन तर्क से परे था. यही बात कम से कम दो और विधान सभा क्षेत्रों, कोंडागांव और केशकाल, के बारे में भी कही जा सकती है, जहाँ जाने पहचाने चहरों की जगह पार्टी ने तुलनात्मक रूप से अनजान व्यक्तियों को उम्मीदवार बनाना पसंद किया. यही कारण रहा की उत्तर बस्तर (जगदलपुर, नारायणपुर और कांकेर जिलों) में हमें हार का मुख देखना पड़ा.
दक्षिण बस्तर में हार का कारण सरकार समर्थित सलवा जुडूम मुहीम बनी, जिसके कारण ७०००० से अधिक आदिवासियों को लगभग ६०० गांवों से उजाड़कर सड़क किनारे बने २६ कैम्पों में लाकर अमानवीय हालत में रहने के लिए मजबूर कर दिया, और हजारों निर्दोष आदिवासियों को मौत के घाट उतार दिया गया. ८ जुलाई २००६ को मैंने सलवा जुडूम के बारे में अपनी टिप्पणी में लिखा था:
"सलवा जुडूम का आदिवासी हितों से कोई लेना-देना नहीं है और इसके पीछे तीन प्रमुख कारक काम कर रहे हैं:
* राजनैतिक: चुनाव के समय खाली कराय गए गांवों में कोई मतदान केन्द्र नहीं खुलेंगे. इन ६-७ 'कोंशंत्रेशन कैम्पों' की सुरक्षित सीमा के भीतर मतदान केन्द्र बनाए जायेंगे. (अंततः यह संख्या बढ़कर २६ हो गयी) ऐसे स्वतंत्र और निष्पक्ष वातावरण में कराये गए चुनाव का परिणाम जान ने के लिए किसी विशेषज्ञ की आवश्यकता नही हैं. सोचिये, यदि नाज़ियों के द्वारा यहूदियों के लिए बनाए गए यातना शिविरों में मतदान कराया गया होता तो क्या हिटलर की नेशनल सोशिलिस्ट पार्टी ने चुनावों में एक तरफा जीत हासिल नहीं की होती? हिटलर ने तो इन शिविरार्थियों को वोट देने के काबिल नहीं समझा था, लेकिन यह सरकार आदिवासियों को अपने एक वोटबैंक के अलावा कुछ और समझने के लिए तैयार ही नहीं है. सलवा जुडूम इस वोटबैंक को भुनाने का सबसे सुनिश्चित तरीका है.
* सांस्कृतिक: शिविरों के नियंत्रित वातावरण के भीतर बड़ी संख्या में मौजूद आदिवासी संघ परिवार के लिए रात दिन काम करके अपने सांचों में ढले आदिवासियों के ऐसे कथित सुसंस्कृत नमूने तैयार करने का सुअवसर देतें हैं जिन्हें बार-बार हर बार यह बताया जाता है की वे झूठे देवताओं की पूजा कर रहे हैं, दूषित भोजन खा रहे हैं, पुरानी बेतुकी परम्पराओं और प्रथाओं का पालन कर रहे हैं. इस प्रकार उन्हें अपनी पहले की जीवन पद्धति को पाशानकालीन और क्रूर बताया जाता है और इस प्रकार धीरे धीरे लेकिन सुनिश्चित तरीके से वे लोग आर.एस.एस के फर्जी-हिंदुत्व का एक हिस्सा बनने लगते हैं. इस प्रकार भौगोलिक और राजनैतिक से कहीं अधिक बढ़कर आदिवासियों का इन शिविरों में रहने के कारण सान्सक्रैतिक विस्थापन जो मुझे बेहद परेशान करता है. इस प्रकार कैम्पों में रहने वाले आदिवासियों को स्थायी रूप से एक हीन भावना का झूठमूठ में शिकार होना पड़ेगा और एक प्रकार की कुत्तों जैसी ज़िन्दगी जीने के लिए मजबूर होना पड़ेगा, जहाँ उन्हें हमेशा यह बताया जायेगा की उन्हें क्या करना चाहिए, क्या महसूस करना चाहिए और क्या सोचना चाहिए. इस प्रक्रिया में आदिवासियों की स्वतन्त्रता बली चढ़ा दी गई है.
* आर्थिक: आदिवासियों को ध्यान में रखकर बनायी गई अन्य सरकारी योजनाओं की तरह सलवा जुडूम के शिविरों ने एक अलग तरह के उद्योग को जन्म दिया है. सरकारी खजाने से रोज खर्च किए जाने वाले करोड़ों रुपये ७०००० आदिवासियों के भोजन, स्वास्थ, शिक्षा और आवास की जगह, दलालों की मंडली द्वारा अपने प्रशासनिक और राजनैतिक संरक्षकों की मिलीभगत से उड़ाए जा रहे हैं. सीधे सीधे शब्दों में कहें तो इतने विशाल आकर्षक और लाभदायी व्यवसाय को समाप्त करना इनमें से किसी के भी हित में नहीं है."
अब मैं कुछ कुछ कासान्द्रा की तरह महसूस करने के लिए मजबूर हूँ, जो भविष्य को जानने के बावजूद उसके बारे में कुछ भी न कर पाने के लिए अभिशापित थी. सच्चाई तो यह है कि सलवा जुडूम के कारण भाजपा को १९५२ में आम चुनाव शुरू होने के बाद से पहली बार दक्षिण बस्तर में पांव जमाने का मौका मिल सका. एक ऐसे क्षेत्र में जहाँ हमेशा चुनावी संघर्ष कांग्रेस और वामपंथियों के बीच होता रहा है, पहली बार भाजपा ने तीन में से दो सीटें सीधे सीधे जीत ली हैं और तीसरी सीट में भी हम उन्हें सिर्फ़ १९० वोटों से हरा सके. सलवा जुडूम के मुद्दे पर कांग्रेस ने अपनी स्थिति स्पष्ट करने से परहेज किया. कांग्रेस विधायक दल के नेता सलवा जुडूम की मुहीम का नेतृत्व कर रहे थे जिसे राज्य और केन्द्र सरकारों, दोनों का समर्थन प्राप्त था, जबकि मेरे पिता के नेतृत्व में पार्टी के निर्वाचित जन प्रतिनिधियों का एक बड़ा समूह ऊपर बताये गए कारणों से इसके विरोध में था. मेरे दृष्टिकोण में हमें इस दीर्धकालीन अस्पष्टता की बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ी है.
मेरा यह मानना है कि बस्तर का संघर्ष चुनावों से कहीं आगे बढ़कर आदिवासी-भारत की आत्मा के लिए संघर्ष है. एक ओर भाजपा और उसके सहयोगी सरस्वती शिशु मंदिरों, एकल विद्यालयों, और वनवासी कल्याण आश्रमों के वृहद् नेटवर्क के द्वारा राज्य प्रशासन के सक्रिय समर्थन के बल पर बस्तर के दूरस्त अंचलों में भी पूर्णकालिक कार्य कर रहे हैं जबकि हमारे पास इसका मुकाबला करने के लिए कुछ भी नहीं है. सही अर्थों में तो हमने उन्हें उनकी मनमानी करने के लिए मैदान खाली छोड़ दिया है. इन सबके बावजूद हमारा अभी भी संघर्ष में मौजूद रहना आश्चर्यजनक है. आखिरकार १२ में से ३ सीटों में हम बहुत कम अन्तर से हारे. अंतागढ़ में ९० वोटों से (मुख्य रूप से मतगणना के दौरान की गई धांधली के कारण), बस्तर में १२०० वोटों से, और कोंडागांव में २७७० वोटों से. मेरे लिए इसका अर्थ यह है कि इन विधान सभा क्षेत्रों में लोग वाकई में बदलाव चाहते थे लेकिन हम उन्हें समुचित विकल्प उपलब्ध कराने में नाकाम रहे.
बस्तर में हमारी लगातार दूसरी हार से मिला सर्वाधिक महत्वपूर्ण सबक यह है कि लड़ाई को शिक्षा और संस्कृति के उन क्षेत्रों में ले जाने की जरूरत है जहाँ भाजपा-आर.एस.एस.-विहिप और उनके सहयोगियों को खुली छूट मिली हुई है. अगर यह लड़ाई जल्द ही शुरू नहीं की गई तो हम लोग घृणा में विश्वास रखने वाली साम्प्रदायिक ताकतों के हाथों बस्तर और शायद पूरे आदिवासी-भारत को खो बैठेंगे.
ब. सतनामियों की उपेक्षा
हमारी हार के लिए दूसरा सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारक पार्टी संगठन के भीतर सतनामी समुदाय की की गई घोर उपेक्षा के परिणाम स्वरुप बसपा का बढ़ता हुआ प्रभाव है, जिसे वर्त्तमान में की जा रही हार की राजनैतिक समीक्षा में जानबूजकर नज़रन्दाज़ किया जा रहा है. जबकि २००३ के विधान सभा चुनावों में सतनामी समुदाय ने कांग्रेस का जमकर साथ दिया था, जिसके परिणाम स्वरूप बसपा का मत प्रतिशत १९९८ के ५.६५% से घटकर २००३ में ४.४% हो गया था; बसपा ने जिन ५४ सीटों में चुनाव लड़ा था उनमें से ४६ में उसके उम्मीदवारों की जमानत जप्त हो गई थी. इसके बावजूद २५,००,००० संख्या वाले इस समुदाय को राज्य, जिला या ब्लाक स्थर पर पार्टी संगठन में विगत ५ वर्षों में कोई प्रतिनिधित्व देने की आवश्यकता भी महसूस न करना खेद का विषय है.
पथरिया ब्लाक का उदाहरण लें, जहाँ ४ बरस पहले ब्लाक कांग्रेस कमिटी के अध्यक्ष का निधन हो जाने पर स्थानीय विधायक ने सतनामी समुदाय के एक सम्मानित व्यक्ति का नाम इस पद को भरने के लिए प्रस्तावित किया लेकिन वह पद अभी भी रिक्त है. इसी तरह एक भी जिला कांग्रेस कमिटी अध्यक्ष सतनामी नहीं है; प्रदेश कांग्रेस कमिटी में भी उन्हें प्रतिनिधित्व नहीं दिया गया. कांग्रेस के चारों मोर्चा संगठनों (सेवा दल, युवा कांग्रेस, एन.एस.यु.आई. और महिला कांग्रेस) के राज्य प्रमुखों में से एक भी इस समुदाय का नहीं है. इस बेहद दुर्भाग्यजनक प्रवृत्ति का परिणाम सतनामियों का बसपा की ओर पलायन रहा है.
इस पलायन के परिणाम कांग्रेस के लिए बेहद घातक सिद्ध हुए हैं. बसपा ने जिन १७ सीटों में ८००० से अधिक वोट लिए, उनमे से कम से कम ११ सीटों में बसपा के उम्मीदवार हमारी पार्टी की बेहद कम मतों से पराजय के लिए सीधे-सीधे जिम्मेदार रहे हैं: बिलासपुर जिले में मुंगेली (अ.जा), तखतपुर, बिल्हा, बेलतरा और मस्तुरी (अ.जा); दुर्ग जिले में नवागढ़ (अ.जा); जांजगीर जिले में अकलतरा, जांजगीर-चांपा, पामगढ़ (अ.जा) और चंदरपुर; तथा रायपुर जिले में बलोदा बाज़ार. मुझे यह कहने में कोई परहेज नहीं है कि यदि इस प्रवृत्ति को तत्काल नहीं रोका गया तो आगामी लोक सभा चुनावों में सतनामी समुदाय कांग्रेस को पूरी तरह छोड़कर बसपा के साथ जा सकता है.
स. राकपा से गठबंधन
तीसरा प्रमुख कारक पार्टी का छत्तीसगढ़ में राकपा जैसी नेत्रित्वविहीन और कार्यकर्ता-विहीन पार्टी के साथ गठबंधन रहा. स्थानीय पार्टी इकाइयों के जबरदस्त विरोध के बावजूद हमने ३ सीटें राकपा के लिए छोड़ दी, जिनमे से पहली हमने जीती थी और वहां से वर्त्तमान विधायक कांग्रेस का था (मनेन्द्रगढ़); दूसरी, सामरी जहाँ से उनके उम्मीदवार की सिर्फ़ कुछ १०० वोट पाने के बाद जमानत जप्त हो गई थी; और तीसरी, उनके प्रदेश अध्यक्ष की, जिसकी पिछले चुनाव में अन्तिम समय में कांग्रेस टिकट कट गयी थी, और वह चुन लिया गया था. यह उम्मीदवार बेहद आसानी से कांग्रेस टिकट पर चंदरपुर सीट से चुनाव लड़ने के लिए तैयार हो सकता था.
इस गटबंधन की घोषणा के साथ ही हमने इन तीनों सीटों को भाजपा को उपहार में दे दिया. और ज्यादा बुरी बात यह है कि हमारे इस सहयोगी दल का वास्तविक गठबंधन कांग्रेस के साथ नहीं वरन भाजपा के साथ नज़र आता है. निम्न उदाहरणों से यह पूरी तरह से स्पष्ट हो जायेगा:
१. मनेन्द्रगढ़ सीट मुख्य रूप से चिरमिरी और मनेन्द्रगढ़, इन दो शहरों से मिलकर बनी है. क्योंकि दोनों ही शहर नए जिले का मुख्यालय बनना चाहते थे, अतः उनके बीच एक पुरानी प्रतिद्वंदता है. ७२००० मतदाताओं वाला चिरमिरी शहर २१००० मतदाताओं वाले मनेन्द्रगढ़ से चार गुना बड़ा है. इन परिस्थितियों में उम्मीदवार को स्वाभाविक रूप से चिरमिरी से होना चाहिए. इस गणित को पूरी तरह नज़रन्दाज़ करते हुए राकपा ने मनेन्द्रगढ़ के रहने वाले को अपना उम्मीदवार बनाया जबकि भाजपा के चिरमिरी के एक बेहद सदाहरण उम्मीदवार ने आसानी से चुनाव जीत लिया.
२. इसी तरह सामरी एक जनजाति क्षेत्र है जहाँ लगभग ७५% मतदाता कंवर समुदाय के हैं जबकि उरांव मात्र १०% हैं. उरांव में भी इसाई-उरांव की संख्या ५% से भी कम है. इस सीट को जीतने की इच्छुक किसी भी पार्टी को अपना टिकट एक कंवर को ही देना था. लेकिन फिर से राकपा ने इन सारी बातों को दरकिनार रख अपना टिकट एक इसाई-उरांव को दिया. भाजपा को मिले ५०००० वोटों के मुकाबले उसके उम्मीदवार को मात्र ८००० वोट मिले और वह चौथे स्थान पर रहा.
३. गठबंधन के नियमों के ख़िलाफ़ जाकर राकपा ने कम से कम १० सीटों से अपने उम्मीदवार खड़े किए जिनमे से चार में हम हार गए. इस प्रकार इस गठबंधन का जो थोड़ा बहुत लाभ कांग्रेस को मिल सकता था, वो भी नहीं मिला.
जिस क्षण इन तीनों उम्मीदवारों की घोषणा की गई, इन सीटों पर भाजपा की विजय उसी समय तय हो गई थी. इस गठबंधन का विरोध करते हुए २५ अक्टूबर २००८ को एक विस्तृत नोट के अंत में मेरे पिता ने लिखा:
"उपरोक्त तथ्यों को देखते हुए यह मेरा- और राज्य के अधिकांश जमीनी कार्यकर्ताओं का- दृढ़ अभिमत है की छत्तीसगढ़ में किसी भी अन्य राजनैतिक दल से गठ्बंदन की कोई आवश्यकता नहीं है. अगर हम सभी ९० सीटों पर चुनाव नहीं लड़ते ओर भाजपा सभी ९० सीटों पर लड़ती है तो इससे हमारी कमजोरी ओर लड़ाई शुरू होने के पहले ही हार स्वीकार कर लेने का संदेश जायेगा."
डी. टिकट वितरण में देर
चौथा कारक सिर्फ़ छत्तीसगढ़ के ही लिए लागू नहीं होता है. पूरे देश में हमारी पार्टी इसी तरह की व्यवस्था से चलती है. आलाकमान की चुनाव से कम से कम दो माह पहले टिकटें तय कर देने की मंशा के विपरीत प्रत्याशियों की घोषणा अन्तिम क्षणों में ही की गई. ५० दिन ओर ५० रातों तक चले अंतहीन ओर ज्यादातर मुद्दाविहीन चर्चाओं के बाद ही हम अन्तिम निर्णय पर पहुँच सके, जिसका अर्थ है की हर विधान सभा सीट पर हम लोगों ने औसत १५ घंटों की चर्चा की!
पार्टी के राज्य के नेता, सभी ९० सीटों के टिकटार्थी ओर उनके समर्थक, इस दौरान दिल्ली में ही जमे रहे, ओर इस महत्वपूर्ण समय में हमने मैदान को भाजपा के लिए तब खुला छोड़ दिया जब राज्य में विधान सभा चुनावों की अधिसूचना जारी हो चुकी थी.
अपनी-अपनी टिकटों के लिए इतनी लम्बी लड़ाई से थक चुके हमारे प्रत्याशियों के पास चुनाव प्रचार के लिए १२ दिन से भी कम समय बचा था. इस बीच भाजपा ने ८ हेलीकॉप्टरों के द्वारा अपने स्टार प्रचारकों ओर लगभग पूरी राष्ट्रीय कार्यकारणी को चुनाव प्रचार में झोंक दिया जबकि हमारे लोग दिल्ली की ठंडी सर्दियों में ठिठुरते हुए आक्रोशित हो रहे थे. यह तो सीधे-सीधे काफ्का की किताबों से उठाया हुआ एक दृश्य प्रतीत होता है.
ई. जोकोछो नीति
सबसे अंत में मैं इस हार के लिए जोकोछो नीति को बड़ी हद तक जिम्मेदार मानता हूँ. इस नीति को दिसम्बर २००३ में हुए चुनावों में आज से ठीक ५ बरस पहले हुई हमारी हार के बाद दुर्ग के एक वरिष्ट नेता की पहल पर लागू किया गया था, जिनकी स्वयं की चुनावी क्षमता (या इस क्षमता की कमी) किसी से छुपी हुई नहीं है. यह नीति अभी तक जारी है.
सीधे-सीधे कहें तो जोकोछो नीति का अर्थ है कि छत्तीसगढ़ में पार्टी के सारे पद "जोगी को छोड़कर" (जो-को-छो) किसी को भी दिए जाएँ. परिणाम स्वरुप मेरे पिता, या उनके सहयोगी माने जाने वाले किसी भी व्यक्ति को, ब्लाक, जिला और राज्य स्थर पर पार्टी संगठन में कोई पद नहीं दिया गया. २००४ में हुए लोक सभा चुनावों में प्रदेश के एक मात्र कांग्रेस सांसद होने के बावजूद उन्हें अपने लोक सभा क्षेत्र में भी अपनी पसंद का एक भी ब्लाक कांग्रेस अध्यक्ष नहीं बनाने दिया गया. छत्तीसगढ़ से निर्वाचित एकमात्र लोक सभा सदस्य होने के बावजूद उन्हें केन्द्र में स्थान नहीं दिया गया. जैसे यह सब उन्हें पूरी तरह बरबाद करने के लिए काफ़ी नहीं था, मुझे केन्द्र में अपनी पार्टी के सत्ता में होने के बावजूद एक केंद्रीय जांच एजेंसी द्वारा जेल में ठूस दिया गया; उनके भी ख़िलाफ़ झूठे निराधार मामले पंजीबद्ध किए गए (यह दीगर बात है की इनमे से एक भी न्यायपालिका की जांच में सही साबित नहीं हुआ).
उन्हें कोटा (२००६) ओर राजनांदगांव (२००७) उपचुनावों की जवाबदारी सौपी गई तो इनमे कांग्रेस को शानदार सफलता मिली; २००७ में ही हुए खैरागढ़, मालखरौदा ओर केशकाल उपचुनावों से उन्हें बाहर रखा गया तो पार्टी की शर्मनाक पराजय भी हुई. लेकिन इसके बावजूद इस नीति में कोई बदलाव नहीं आया. २००८ के चुनावों में टिकट वितरण प्रक्रिया से उन्हें जानबूजकर अलग रखने के लिए स्क्रीनिंग कमिटी ओर केंद्रीय चुनाव समिति की बैठकों से बहार रखा गया. बारम्बार निवेदन करने के बावजूद राज्य की जरह भी जानकारी न रखने वालों या बेहद कम जानकारी रखने वालों पर सारे अहम फैसले लेने की जवाबदारी डाल दी गई.
जोकोछो नीति का सबसे स्पष्ट प्रदर्शन तब देखने को मिला जब उन्हें कांग्रेस विधायक दल का नेता चुनने के लिए अधिकांश विधायकों द्वारा हस्ताक्षर युक्त पत्र होने के बावजूद उनकी घोर उपेक्षा की गई; जैसे यह काफ़ी नहीं था, एक ऐसे व्यक्ति को नेता प्रतिपक्ष बनाया गया जिसकी इस पद पर नियुक्ति के लिए मेरे पिता ५ बरसों तक लगातार प्रयासरत रहे. ५ बरसों बाद नियुक्ति तब की गई जब उन्होंने सार्वजनिक रूप से मेरे पिता से अपने-आप को दूर कर लिया. किसी भी राजनैतिक सम्मीक्षक के लिए यह स्पष्ट हो जाना चाहिए की जोकोछो नीति का उद्देश्य पार्टी में 'जोगी' के प्रभाव को सुनियोजित तरीके से कम करके छत्तीसगढ़ में एक वैकल्पिक नेतृत्व विकसित करना है.
यह बताने की आवश्यकता नहीं है की जोकोछो नीति अपने उद्देश्यों को पूरा करने में नाकामयाब रही है.
एक 'जोगी' का जवाब
५ वर्षों तक पार्टी को चलाने की जवाबदारी जिन विकल्पों को सौपी गई उन्होनें न केवल पार्टी को बरबाद कर दिया बल्कि वे सारे नेता और उनकी तमाम संतानें ख़ुद के चुनाव सिर्फ़ इसलिए हार गए क्योंकि कांग्रेस के कार्यकर्ताओं और आम जनता के बीच भी इन लोगों की राज्य की भाजपा सरकार से मिलीभगत की चर्चाएं आम थी. वे लोग एक प्रभावी विपक्ष की भूमिका निभाने में पूरी तरह से नाकाम रहे. (अगर वे लोग जीत गए होते तो शायद आज राज्य में कांग्रेस की सरकार होती.) अपने बचाव में कहने के लिए इन लोगों के पास सिर्फ़ यह है की अपनी शर्मनाक हारों के लिए वे स्वयं नहीं वरन 'जोगी' जिम्मेदार है.
अगर यह बात सही है, तो सवाल यह उठाता है की क्यों अपनी और पार्टी की हार के लिए मेरे पिता को जिम्मेदार ठहरा रहे इन नेताओं ने अपनी चुनाव प्रचार सामग्री में ओर विज्ञापनों में उनकी तस्वीरों का भरपूर ओर खुलकर उपयोग किया:
अगर वे जितना बताते हैं, मेरे पिता उतने ही 'अलोकप्रिय' हैं, तो उनके पोस्टरों की शोभा बढ़ाने के लिए राज्य के जिस एकमात्र नेता की तस्वीरें सजी हैं, वो मेरे पिता की ही क्यों है? यह एक निहायत ही बेशर्म किस्म की ओची राजनीति का जीता-जागता उदाहरण है जिसमे अतिमहत्वकान्शा ओर कृतघ्नता के साथ-साथ मंद-बुद्धि ओर प्रतिभाहीनता का सम्मिश्रण देखने को मिलता है.
बेहद विनम्रता के साथ मैं ये कहना चाहता हूँ की हो सकता है की मेरे पिता राज्य के लोकप्रिय नेताओं में से एक हैं, लेकिन मैं यह नहीं मानता की वे इतने शक्तिशाली हैं की जिन क्षेत्रों में वे एक बार भी नहीं गए, वहां भी वे यह फैसला कर सकते हैं की किसे जीतना चाहिए ओर किसे हारना चाहिए. अगर मामला ऐसा है (हालांकी मैं आश्वस्त करता हूँ की ऐसा नहीं है) तो जोकोछो नीति को त्यागने का इससे बहतर ओर कोई तर्क हो ही नहीं सकता.
अगर तर्क के लिए यह मान भी लिया जाए की उन्होनें अपने विरोधीयों की हार तय करने के लिए काम किया तो कम से कम उनके विरोधीयों से यह तो पूछा ही जाना चाहिए की उन लोगों ने स्वयं सहित कितने लोगों की जीत सुनिश्चित की? तथाकथित प्रदेश स्थर के नेता होने के बावजूद उनमे से एक भी अपने निर्वाचन क्षेत्र को छोड़कर किसी भी अन्य उम्मीदवार के लिए एक भी दिन प्रचार करने क्यों नहीं गया, ओर अपने-अपने क्षेत्रों में पूरी ताकत झोंक देने के बावजूद फिर भी क्यों हार गया? इसके ठीक विपरीत मेरे पिता एक बार भी अपने निर्वाचन क्षेत्र में नहीं गए ओर पूरे समय पार्टी के उम्मीदवारों के लिए दीगर क्षेत्रों में प्रचार करते रहने के बावजूद, इन सर्दियों में जिन ६ राज्यों में चुनाव हुए, उनमे सर्वाधिक मतों के अन्तर से चुनाव जीत गए. किसी को भी यह नहीं भूलना चाहिए की पिछले पाँच बरसों में मेरे पिता के पास सिर्फ़ महासमुंद के लोक सभा सदस्य का ही पद था ओर इस लोक सभा क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले महासमुंद ओर धमतरी जिलों की हर एक सीट के साथ-साथ राजिम में भी कांग्रेस को जीत मिली है. इन सभी क्षेत्रों पर पहले भाजपा का कब्जा था. इन उदाहरणों से मेरे पिता की लोकप्रियता को लेकर उठाये गए सवालों का सही जवाब मिल जाता है.
कांग्रेस या भाजपा के किसी भी अन्य नेता से अधिक जनसभाएं लिए ओर रोड-शो उन्होनें किए, इस तथ्य से तो कोई भी इनकार नहीं कर सकता. १४ दिनों से भी कम समय में उन्होनें ८७ विधान सभा में से ७४ में १८६ से अधिक कार्यक्रमों में भाग लेने के लिए हर दिन व्हिल्चायर पर १८ घंटों से अधिक समय बिताया.
उन्होनें ये सब अपने स्वास्थ्य की कीमत पर डॉक्टरों की सलाह के ख़िलाफ़ जाकर किया. हाल ही में हम लोगों ने दिल्ली के एस्कोर्ट और अपोलो अस्पतालों में २० दिन सिर्फ़ यह सुनिश्चित करने के लिए लगाए की वे फिर से अपनी सामान्य ज़िन्दगी जीना शुरू कर सकें. यह कहना पर्याप्त होना चाहिए की जब डॉक्टरों ने उनकी मेडिकल रिपोर्ट देखी तो उन्हें इस बात पर ताजुब हुआ की वे इन सब के बावजूद कैसे जीवत रह सके. उनकी ज़िन्दगी का एकमात्र उद्देश्य यह था की वे छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकार बनते हुए देखें और उन्होनें इसके लिए अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया.
इन सबके बावजूद यदि तथाकथित नेता अपनी कमियों और गलतियों के लिए उन्हें उत्तरदायी ठहराते हैं तो उन्हें अमेरिका की आजादी की लड़ाई के दौरान बेंजामिन फ्रान्कलिन द्वारा अपने सहयोगियों से कही गई बात याद रखनी चाहिए: "यदि अब हम सब एक साथ नहीं रह सके तो सबका अलग-अलग सूली पे लटकना तय है." (We must indeed all hang together or most assuredly we shall all hang separately.)
अंत में
छत्तीसगढ़ का जनादेश कांग्रेस को नकारना नहीं है; हमें एक क्षण के लिए यह नहीं भूलना चाहिए की हमें स्पष्ट बहुमत से सिर्फ़ ६ सीटें कम मिली- ऐसी सीटें जिन्हें हमने अपनी कमियों के कारण गवांया; न की किसी काल्पनिक "चाऊर वाले बाबा" की लहर के कारण. (अगर ऐसी कोई लहर होती तो हमारा पूरी तरह से सफाया होता) यह स्पष्ट है की छत्तीसगढ़ की जनता हमसे एक ऐसे सशक्त विपक्ष की भूमिका निभाने की अपेक्षा रखती है जो सरकार को सीधे-सीधे उसके सारे कामों और कमियों के लिए जवाबदेही पर मजबूर करे. पिछली बार हम इस कर्तव्य के पालन में बुरी तरह से विफल रहे थे. कम से कम इस बार तो हम उन्हें निराश न करें.
साथ ही साथ हमें यह भी समझना होगा की कांग्रेसजनों के लिए आने वाला समय बेहद कठिन साबित होगा: हमारे ज़मीनी कार्यकर्ताओं में से बहुत से लोग राज्य सरकार के द्वारा सुनियोजित तरीके से बदले की भावना के साथ निशाना बनाए जा रहे हैं. भाजपा शासन के और पाँच सालों के बाद इस बात की संभावनाएं हैं की सरकार और संघ के बीच कोई फर्क नहीं रह जायेगा. अतः एक दूसरे पर खुले आम आरोप मढ़ने के बजाये हमें मूल रूप से तीन चीज़ों पर ध्यान देना चाहिए: बस्तर की आत्मा के लिए संघर्ष में विजय प्राप्त करना; सतनामियों को वापस कांग्रेस से जोड़ना; और प्रदेश में पार्टी संगठन के पुनर्निर्माण के दौरान जनादेश को समझकर, उसका सम्मान करना. यदि हम ऐसा नहीं कर पाते, तो हमें उत्तर प्रदेश और बिहार के रास्ते पर जाने से कोई नहीं रोक सकता; और हमारी भविष्य की पीढियां- हमारी अजन्मी संतानें- हमें कभी माफ़ नहीं करेंगी.