नोट: मैं अतुल सिंघानिया का आभारी हूँ जिन्होंने इस लेख का हिंदी अनुवाद किया है.
उत्तर प्रदेश और पंजाब में हुए विधानसभा चुनावों के पश्चात, बहुत लोगों ने NSUI और युवा कांग्रेस के पदों के लिए कराये जा रहे चुनावों की उपयोगिता पर सवाल उठाने शुरू कर दिए हैं. लोगों का मत है कि इन संस्थाओं में चुनाव तीन कारणों से उपयोगी नहीं रहे हैं -
i. चुनाव अपनी ही पार्टी के लोगों में आपसी वैमनस्यता बढ़ा कर कटुता पैदा करते हैं.ii. जीते हुए प्रत्याशी को किसी को भी पुरस्कृत या दण्डित करने का कोई अधिकार नहीं होता. इस वजह से उनकी कोई नहीं सुनता. सर्वोच्च अधिकार मुख्य रूप से नियुक्त की गयी केन्द्रीय कमिटी के पास होता है.iii. चुनाव चयनित पदाधिकारियों के मन में महत्वाकांक्षाएं बढ़ा देते हैं: उन्हें ऐसा लगने लगता है कि चुनाव जीत जाने से उन्हें आम चुनाव में पार्टी टिकट पर चुनाव लड़ने का अधिकार मिल जाता है. ये महान महत्वाकांक्षाएं बहुत ही कम पूरी होती हैं.
मैं चुनाव करवाने के पूरी तरह से पक्ष में हूँ. महान विंस्टन चर्चिल के शब्दों में व्याख्या करें तो "चुनाव करवाना युवा कांग्रेस को चलाने के अन्य सभी अजमाए हुए तरीकों से कम ख़राब विकल्प है." सबसे उपयुक्त व्यक्तियों को चुनने के लिए इससे बेहतर कोई भी तरीका नहीं हो सकता. मेरा मत है कि इस प्रकिया में गलती यह है कि चुनाव अपने आप में चयनित पदाधिकारियों को अधिकार नहीं देते. इसके विपरीत चुनाव यह सुनिश्चित करते हैं कि चुने हुए पदाधिकारी आपस में एक दूसरे के प्रति पहले ही दिन से गहरा अविश्वास करते हैं: या तो वे एक दूसरे के विरोध में काम करते हैं या काम ही नहीं करते.
हमारे सिस्टम में ऐसा कुछ भी नहीं है जिससे कि प्रत्याशियों में चुनाव के बाद वापस रिश्ते सामान्य हों. रिश्ते सामान्य होने से मेरा मतलब यह नहीं है कि उन लोगों के बीच फिर से स्नेह और प्यार बहाल हो जाए. जो प्रक्रिया जीत और पराजय निश्चित करवाती है, उससे यह अपेक्षा रखना कुछ ज्यादा ही हो जाएगा. लेकिन रिश्ते बहाली से यह जरुर अपेक्षा की जा सकती है कि एक अच्छा "कामकाजी सम्बन्ध" बनाया जाए जो पार्टी के हित में हो. यह तभी संभव है जब हम उस पदानुक्रम को स्वीकार करें जो चुनाव की वजह से उत्पन्न होता है.
चुनाव द्वारा हमारे युवा नेताओं को चुनना यदि सबसे उपयुक्त तरीका न भी हो तब भी निसंदेह ही सबसे कम बुराइयों वाला तरीका है. लेकिन इसमें दिक्कत जो मुझे समझ में आती है वह यह है कि चुने हुए लोगों को जवाबदारी तो पूरी सौंप दी जाती है लेकिन उन जवाबदारियों को निभाने के लिए कोई भी अधिकार नहीं दिए जाते. कोई भी प्रबंधन का छात्र यह भली भांति जानता होगा कि यह तरीका बर्बादी की राह पर ले जाता है. वर्तमान व्ययस्था में चुने हुए लोगों से अधिकार लेकर अचयनित और नियुक्त की गयी केन्द्रीय कमिटी के हाथों में दे दिए जाते हैं.
इस समस्या को दो तरह से सुलझाया जा सकता है:
i. केंद्रीय कमिटी जो सबसे ऊपर रहती है उसके भी चुनाव करवाए जाएँ.ii. राज्य से लेकर पंचायत स्तर तक हर जगह चुने हुए कमिटी के मुखिया को यह अधिकार दिए जाएँ कि वे अपने साथ काम करने वाले सदस्यों की नियुक्ति कर सकें और उन्हें अनुशाशन में रख सकें. मुखिया को यह बुनियादी अधिकार दिए बिना अनुशासनहीनता की समस्या जस की तस बनी रहेगी. कमिटी के अध्यक्ष को यह अधिकार होना चाहिए कि वह अपने हिसाब से कम से कम पांच सचिवों की नियुक्ति कर सके (बशर्ते वे कुछ तय किये गए मापदंडों में खरे उतरते हो) और कमिटी के बाकी चुने हुए सदस्यों पर अध्यक्ष जरुरत पड़ने पर अनुशासनात्मक कार्यवाही कर सके (जो कि एक खुली प्रक्रिया के तहत हो और जिसमे सदस्य के पास अपील का अधिकार हो).
जहाँ तक विजयी प्रत्याशियों में बढ़ी हुई महत्वकांक्षा का सवाल है, यह काफी स्वाभाविक है. लेकिन संगठनात्मक चुनाव में विजय प्रत्याशी को आम चुनाव में पार्टी टिकेट का न तो हकदार बना सकती है और न ही बनाना चाहिए. उसके प्रदर्शन का मूल्याँकन करने के लिए विषयनिष्ठ पैमाने तय किये जाने चाहिए. "पहचान" केवल सैद्धांतिक प्रतिरूप बनकर नहीं रह जाना चाहिए: इसका सीधा सम्बन्ध टिकट आबंटन से होनी चाहिए. दुर्भाग्यवश इन चुने हुए पदाधिकारियों को कोई अधिकार न देना- और उन्हें ऐसे लोगों के प्रति उत्तरदायी बनाना जो खुद चयन से न आकर नियुक्ति प्रक्रिया से आये हैं- पदाधिकारियों को अपनी पूरी क्षमता से काम करने से मुश्किल कर देता है. मुझे विश्वास है कि पदाधिकारियों को अधिकार मिलने के बाद उनका प्रदर्शन बहुत हद तक सुधरेगा. और सब कुछ ठीक तरह चलने से वे लोग समय के साथ पार्टी टिकट के स्वाभाविक दावेदार होंगे. उन्हें बस संयम बरतना और सही समय का इंतज़ार करना सीखना होगा.
जहाँ तक चुनाव के समय का सवाल है, उत्तरप्रदेश, पंजाब, झारखण्ड और बिहार ने हमे यह सिखाया है कि सबसे उपयुक्त होगा अगर NSUI और युवा कांग्रेस के संगठन के चुनाव विधान सभा चुनाव या आम चुनाव के कम से कम दो साल पहले करवाए जाएँ. इससे सम्बंधित राज्य कमिटी या केंद्रीय कमिटी को काम करने के लिए उनके तय कार्यकाल की पूरी अवधि मिलेगी. इसका फ़ायदा यह भी होगा कि संगठनात्मक चुनाव के दौरान उत्त्पन्न हुई कटुता को नरम पड़ने के लिए समय मिल जाएगा और चयनित कमिटियों को अपनी उपयोगिता साबित करने का पूरा अवसर मिलेगा.
युवा कांग्रेस के चुनाव की पद्धति में लगातार फेरबदल हुए हैं:
i. पहले विधानसभा कमिटियों के लिए सीधे चुनाव होते थे, उसे बदल कर पंचायतों और वार्डों के डेलीगेट को अपना विधानसभा अध्यक्ष चुनने का अधिकार दिया गया (जिससे कि युवा कांग्रेस सदस्यता अभियान ग्रामीण क्षेत्रों तक पहुँच सके).ii. पहले पंचायत स्तर के डेलीगेट विधानसभा और लोकसभा कमिटी चुनते थे, और यह कमिटियाँ फिर राज्य की कमिटी चुनती थी (चरणबद्ध तरीके से मतदान). इसे बदल कर एक ही चरण में मतदाताओं द्वारा एक साथ विधान सभा, लोक सभा और राज्य की कमिटियों की चुनाव प्रक्रिया निर्धारित करी गयी. ऐसा इसलिए किया गया जिससे कि डेलीगेट की खरीद फरोक्त को जहाँ तक संभव हो रोका जा सके और यह सुनिश्चित किया जा सके कि जिस प्रत्याशी का सबसे ज्यादा प्रभाव और संजाल है वह चुनाव जीते.iii. सबसे ताजे बदलाव में पंचायतों और वार्डों की जगह मतदान बूथों को मूलभूत निर्वाचक इकाई बनाया गया है (जिससे कि संगठनात्मक चुनावों को आम चुनाव की पद्धति पर लाया जा सके और बेहतर बूथ स्तर का प्रबंधन सुनिश्चित किया जा सके).
परिवर्तन- मौजूदा प्रक्रिया की कमी को पहचानना और उसमे सुधार करना- हमारी सबसे बड़ी ताकत है. लेकिन अभी तक सारे परिवर्तन चुनाव करवाने की प्रक्रिया तक ही सीमित रहे हैं. समय आ गया है कि परिवर्तन के सिद्धांत को चुनी हुई कमिटियों की कार्यप्रणाली पर लागू किया जाए. और जो संस्था इन परिवर्तनों को लागू करती है उसमे भी परिवर्तन किया जाए. इसमें कोई संदेह नहीं कि फेम एक बहुत ही इज्ज़तदार संस्था है लेकिन वह पूरी तरह से गैर राजनितिक है. इस वजह से कई बार राजनैतिक कारणों को पूरी तरह से नज़र अंदाज़ कर दिया जाता है. हाल ही में फेम द्वारा उठाये गए कदमो पर मनमानी और गुपचुप तरीके से बिना पारदर्शिता के काम करने के आरोप लगे हैं. (उदाहरण के तौर पर हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक युवा कांग्रेस के चुनाव में विजयी प्रत्याक्षी को अयोग्य घोषित करना और पुनः चुनाव करवाने के पीछे जो आधार दिया गया था, उसे फेम द्वारा छत्तीसगढ़ में पिछले NSUI चुनावों के दौरान पूरी तरह से नज़र अंदाज़ कर दिया गया.)
इसका कारण जो मुझे समझ में आता है वह यह है कि चुनाव आयोग जो भारत में आम चुनाव करवाता है उसके सारे निर्णय न्यायिक समीक्षा के दायरे में आते हैं लेकिन फेम द्वारा लिए गए किसी भी निर्णय को न्यायिक समीक्षा की परिधि से बहार रखा गया है. ऐसा करने के पीछे मुख्य कारण यह है कि न्यायिक समीक्षा से पार्टी के भीतर अनुशासनहीनता फ़ैल सकती है. यदि पार्टी इस नियम को हटा दे तो मुझे विश्वास है कि फेम पर यह आरोप लगने कम हो जायेंगे. मुझे यह भी विश्वास है कि फेम को पार्टी द्वारा ऐसा करने में कोई भी आपत्ति नहीं होनी चाहिए.
हमे यह नहीं भूलना चाहिए कि हम एक राजनैतिक संस्था हैं जिसका मुख्य उद्देश्य चुनाव जीतना है. इसलिए सर्वोच्च संस्था द्वारा लिए गए सभी निर्णय राजनैतिक होने चाहिए. एक पूरी तरह से गैर-राजनैतिक संस्था- जो हो सकता है कि हमारी विचारधारा से सहमत न हो और हमारे राजनैतिक हितों से भी मेल न खाती हो- के हाथों में स्वयं को पूरी तरह से और निशर्त सौंप देना कहीं न कहीं अपने राजनैतिक चरित्र के साथ समझौता करना है. फेम के पास नियमो को लागू करने का सर्वोच्च अधिकार होना चाहिए लेकिन उन नियमों को बनाने का, उनमे बदलाव करने का और नियम को हटाने का अधिकार सिर्फ और सिर्फ एक ऐसी हस्ती को होना चाहिए जो पूर्ण रूप से हमारी विचारधारा के प्रति समर्पित हो और पार्टी हित ही जिसका एकमात्र उद्देश्य हो.
अंततः मैं यह स्पष्ट करना चाहता हूँ कि मैं एक क्षण के लिए भी यह नहीं कह रहा कि मेरे द्वारा यहाँ दिए गए सुझावों का आँख मूँद कर अनुसरण किया जाए. मैं सिर्फ यह उम्मीद कर सकता हूँ कि इस लेख में मेरे द्वारा उठाये गए मुद्दे कांग्रेस पार्टी के युवाओं के लिए विस्तृतसंवाद के शुरवाती बिंदु बनें. ऐसे समय में, जब बेंजामिन फ्रैंकलिन के शब्दों में "हम सब को एक ही बंधन में रहना चाहिए अन्यथा निश्चित रूप से हम सब अलग-अलग सूली पर लटके नज़र आयेंगे."