नोट: लेखक सन १९९८ से २००२ तक जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय, नई दिल्ली, में एन.एस.यू.आई. के सक्रीय सदस्य के रूप में कार्यरत रहे. इस लेख को दैनिक नई दुनिया द्वारा १८.७.२००९ को प्रकाशित किया गया था.
छोटी सी आशा
छत्तीसगढ़ में कांग्रेस के छात्र संगठन, एन.एस.यू.आई., के चुनाव हो रहे हैं. उत्तराखंड के बाद छत्तीसगढ़ दूसरा राज्य है जिसे पार्टी ने चुनाव के लिए चुना है, जो अपने आप में हमारे लिए गर्व की बात है: कांग्रेस, कांग्रेस की विचारधारा, और कांग्रेस के युवा नेतृत्व, जिसके प्रतीक स्वयं राहुल गाँधी हैं, से सीधे जुड़ने का अवसर हमारे प्रदेश के छात्रों को मिला है. इसका पूरा पूरा लाभ उनको लेना चाहिए.
इस प्रक्रिया से प्रदेश में पार्टी में जो मायूसी के बादल छाय हुए हैं, हटना शुरू होंगे, और एक ऐसे नए नेतृत्व, जिसका सीधा सम्बन्ध यहाँ के छात्र जीवन से है, का जन्म होगा.
संगठन चुनाव पार्टी के लिए कितना महत्व रखते हैं, इसका अंदाजा केवल इस एक बात से लगाया जा सकता है: लोक सभा की शानदार जीत के ठीक बाद जब उस जीत के सूत्रधार, श्री राहुल गाँधी, से पुछा गया कि उनके जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि वे क्या मानते हैं, तो उन्होंने दो-टूक जवाब दिया: उत्तराखंड, पंजाब और गुजरात में हुए कांग्रेस के युवा संगठनों के चुनाव.
उनके इस कथन के पीछे बहुत ही सरल किन्तु दूरगामी सोच निहित है.
हल्ला बोल
वामपंथियों और आर.एस.एस. की तरह कांग्रेस कभी भी काडर पर आधारित पार्टी नहीं रही है. मेरा तो यहाँ तक मानना है कि कांग्रेस कभी भी पार्टी/संगठन के रूप में सफल नहीं रही है: महात्मा गाँधी से लेकर सोनिया गाँधी तक, कांग्रेस ने जब भी एक जनांदोलन का रूप धारण किया है, तभी उसे सफलता हासिल हुई है. और किसी भी जनांदोलन का निर्माण तभी हो सकता है जब जनता अपने नेतृत्व का चयन स्वयं करे, न कि उस पर ऊपर से 'नेता' थोपे जाएँ.
लगभग पिछले एक दशक से कांग्रेस, और विशेषकर कांग्रेस के युवा संगठनों, में नेतृत्व का निर्णय पार्टी के बड़े नेताओं से पूछकर किये जाने की परम्परा बन गई थी. इसका नतीजा यह रहा कि पार्टी में अधिकतर लोग संगठन से कम, और अपने नेताओं के प्रति अधिक समर्पित थे; संगठन - या जनता- की चिन्ता न करके वे अपने आकाओं की खुशामद करने में ज्यादा लगे रहे. और इसका खामियाजा पार्टी को भुगतना पड़ा. ऐसे ऐसे नेताओं को पार्टी में जिम्मेदारी मिली जिनका संगठन और जनता, दोनों से दूर दूर तक का कोई लगाव नहीं था.
ज़रा होल्ले होल्ले...हम भी पीछे हैं तुम्हारे!
सवाल ये उठता है कि चुनाव- जो कि सही मायने में चुनाव हो न कि जैसे वर्तमान में वोटर/डेलीगेट पहले से तय करके प्रदेश में करवाए जाते हैं- केवल कांग्रेस के युवा संगठनों में क्यों कराये जा रहे हैं? ऐसे चुनाव मुख्य संगठन, कांग्रेस, में क्यों नहीं हो रहे हैं? मेरी समझ से इसका कारण यह है कि यदि कांग्रेस में इस प्रकार के चुनाव एकदम से कराये जाते हैं, तो शायद पूरी व्यवस्थता अस्त-व्यस्त हो जायेगी.
पंडित नेहरू के करीबी रहे अंग्रेज़ समाजवादी-इतिहासकार, अर्नाल्ड तोय्न्बी, के अनुसार सफल परिवर्तन धीरे-धीरे, सोच समझकर, नई-पुरानी चुनौतियों से जून्झते हुए, अपनी गलतियों से सीख लेकर, उनको सुधार कर, एक-एक सीड़ी चढ़ कर, होता है. श्री राहुल गाँधी इस बात को भली-भाँती समझते हैं. इसलिए देश के विभिन्न प्रान्तों में, एक-एक कर, पार्टी के युवा संगठनों के चुनाव करवा कर, वे संभल-संभल के, धीरे-धीरे, सम्पूर्ण परिवर्तन की ओर बढ़ रहे हैं.
आखिरकार, आज के छात्र और युवा नेता ही तो कल कांग्रेस के मुख्य संगठन का नेतृत्व करेंगे: अगर संसद को ही देख लें, तो उसमें कम से कम ३४ ऐसे सांसद हैं जो कांग्रेस के युवा संगठनों में आज भी सक्रीय रूप से सदस्य हैं.
जाग, मुसाफिर, जाग ज़रा
लोकतंत्र का मतलब मात्र चुनाव से नहीं है. प्रिन्सटन विश्वविद्यालय के चिन्तक, सुनील खिलनानी, ने अपने शोध, "ऐन आईडिया ऑफ़ इंडिया", में लिखा है कि भारतीय लोकतंत्र शायद इसलिए इतना विकसित नहीं हो पाया है क्योंकि हमने अब तक अपने लोकतंत्र को 'चुनावों के पंचवर्षीय तमाशे' से ऊपर उठने ही नहीं दिया है: चुनाव के साथ-साथ आवश्यक है, लोकतांत्रिक संस्थाओं और संस्कृति, जैसे कि संसदीय प्रणाली और बहस, का विकास, जिसका अभाव अब भी हमारे देश में है.
युवा संगठनों के चुनावों में भी इस अभाव को महसूस किया जा सकता है. पार्टी के आतंरिक चुनाव होने के कारण, छात्र नेता मुद्दों पर नहीं, बल्कि अपने-अपने व्यक्तित्व- जिसमे उनके बड़े नेताओं से सम्बन्ध और वोटों को एन-केन-प्रकारण प्रभावित करने की अन्य समस्त क्षमताएं समाहित हैं- के बलबूते पर चुनाव लड़ते हैं. ऐसे में, स्वाभाविक तौर से ऐसे छात्र जिन्हें आला नेताओं का वरदहस्त प्राप्त नहीं है, या फिर वे धन-बल से कमजोर हैं, दूसरों की अपेक्षा कमजोर पड़ जाते हैं. (इन चुनावों में सदस्यता-फीस १० रूपये है, जिसे छात्रों को स्वयं देना चाहिए, न कि किसी दूसरे को जो कि खुद चुनाव लड़ने-लड़वाने में इच्छुक हो.)
इस समस्या का समाधान एक ही है: छात्रों को अपना वोट देते समय जागरूक रहना पड़ेगा. वे ऐसे व्यक्ति को चुने जो उनके सुख-दुःख में, उनके साथ रहा हो; और जो भविष्य में भी उनके हितों की रक्षा करने के लिए संघर्ष करने में पीछे न हटे चाहे चुनौती कितनी बड़ी ही क्यों न हो. मुझे इस बात का गर्व है कि मैं ऐसे कई छात्र-नेताओं को जानता हूँ; उनके साथ मुझे काम करने के अवसर भी समय समय पर मिलते रहे हैं. लेकिन ऐसे नेताओं को मुझसे कहीं बहतर वर्तमान में छात्र जीवन के संघर्ष से गुज़र रहे युवा, जानते हैं.
ये चुनाव महज़ एक तमाशा न बन जाए, इसका विशेष ध्यान रखना होगा.
गांधी बनाम जिन्नाह
अंत में, मैं आपका ध्यान छात्र राजनीति की दो प्रमुख विचारधाराओं की ओर आकर्षित करना चाहूंगा: स्वतन्त्रता संग्राम के दौरान जब राष्ट्रपिता, महात्मा गाँधी, ने छात्रों को अपनी-अपनी पढ़ाई छोड़कर, भारत छोड़ो आन्दोलन में पूरी तरह से भाग लेने का आह्वान किया था, तब उनके विरोधी और भविष्य के पकिस्तान के क़ैद-ए-आज़म, मोहम्मद अली जिन्नाह, ने यह टिप्पणी करी थी कि छात्र पहले अपनी पढ़ाई ख़त्म करके अपने-अपने पैरों पर खड़े हो जाएँ, फिर किसी आन्दोलन में भाग लें.
मैं समझता हूँ कि इन दोनों के बीच का रास्ता, सही रास्ता है- जिसे बौद्ध-चिंतन में "मध्यम मार्ग" की संज्ञा दी गई है. छात्रों को आन्दोलन करना चाहिए, लेकिन जो भी आन्दोलन वे करें, उनके अपने छात्र-जीवन- विशेषकर पढ़ाई- से सीधे सम्बंधित रहे. मसलन उनका कॉलेज फीस में वृद्धी के खिलाफ आन्दोलन करना सही है, लेकिन धान ख़रीदी में हुए प्रदेशव्यापी घोटाले की जांच की मांग करने के लिए उनका अपनी क्लास छोड़कर जेल जाना, या फिर मुख्यमंत्री के पुतले जलाना, मेरी समझ से उचित नहीं होगा. ये काम युवा कांग्रेस, और कांग्रेस के दुसरे मोर्चा संगठनों, का है, न कि छात्रों का.
छात्र राजनीति- और उसके जरिए, प्रदेश की भविष्य की राजनीति- में जो परिवर्तन का प्रयोग प्रारंभ हुआ है, उसका मैं स्वागत करता हूँ. और सभी मेरे छात्र-छात्रा नौजवान साथियों को इस प्रयोग की अपार सफलता के लिए अपनी शुभकामना देता हूँ.
छत्तीसगढ़ में कांग्रेस के छात्र संगठन, एन.एस.यू.आई., के चुनाव हो रहे हैं. उत्तराखंड के बाद छत्तीसगढ़ दूसरा राज्य है जिसे पार्टी ने चुनाव के लिए चुना है, जो अपने आप में हमारे लिए गर्व की बात है: कांग्रेस, कांग्रेस की विचारधारा, और कांग्रेस के युवा नेतृत्व, जिसके प्रतीक स्वयं राहुल गाँधी हैं, से सीधे जुड़ने का अवसर हमारे प्रदेश के छात्रों को मिला है. इसका पूरा पूरा लाभ उनको लेना चाहिए.
इस प्रक्रिया से प्रदेश में पार्टी में जो मायूसी के बादल छाय हुए हैं, हटना शुरू होंगे, और एक ऐसे नए नेतृत्व, जिसका सीधा सम्बन्ध यहाँ के छात्र जीवन से है, का जन्म होगा.
संगठन चुनाव पार्टी के लिए कितना महत्व रखते हैं, इसका अंदाजा केवल इस एक बात से लगाया जा सकता है: लोक सभा की शानदार जीत के ठीक बाद जब उस जीत के सूत्रधार, श्री राहुल गाँधी, से पुछा गया कि उनके जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि वे क्या मानते हैं, तो उन्होंने दो-टूक जवाब दिया: उत्तराखंड, पंजाब और गुजरात में हुए कांग्रेस के युवा संगठनों के चुनाव.
उनके इस कथन के पीछे बहुत ही सरल किन्तु दूरगामी सोच निहित है.
हल्ला बोल
वामपंथियों और आर.एस.एस. की तरह कांग्रेस कभी भी काडर पर आधारित पार्टी नहीं रही है. मेरा तो यहाँ तक मानना है कि कांग्रेस कभी भी पार्टी/संगठन के रूप में सफल नहीं रही है: महात्मा गाँधी से लेकर सोनिया गाँधी तक, कांग्रेस ने जब भी एक जनांदोलन का रूप धारण किया है, तभी उसे सफलता हासिल हुई है. और किसी भी जनांदोलन का निर्माण तभी हो सकता है जब जनता अपने नेतृत्व का चयन स्वयं करे, न कि उस पर ऊपर से 'नेता' थोपे जाएँ.
लगभग पिछले एक दशक से कांग्रेस, और विशेषकर कांग्रेस के युवा संगठनों, में नेतृत्व का निर्णय पार्टी के बड़े नेताओं से पूछकर किये जाने की परम्परा बन गई थी. इसका नतीजा यह रहा कि पार्टी में अधिकतर लोग संगठन से कम, और अपने नेताओं के प्रति अधिक समर्पित थे; संगठन - या जनता- की चिन्ता न करके वे अपने आकाओं की खुशामद करने में ज्यादा लगे रहे. और इसका खामियाजा पार्टी को भुगतना पड़ा. ऐसे ऐसे नेताओं को पार्टी में जिम्मेदारी मिली जिनका संगठन और जनता, दोनों से दूर दूर तक का कोई लगाव नहीं था.
ज़रा होल्ले होल्ले...हम भी पीछे हैं तुम्हारे!
सवाल ये उठता है कि चुनाव- जो कि सही मायने में चुनाव हो न कि जैसे वर्तमान में वोटर/डेलीगेट पहले से तय करके प्रदेश में करवाए जाते हैं- केवल कांग्रेस के युवा संगठनों में क्यों कराये जा रहे हैं? ऐसे चुनाव मुख्य संगठन, कांग्रेस, में क्यों नहीं हो रहे हैं? मेरी समझ से इसका कारण यह है कि यदि कांग्रेस में इस प्रकार के चुनाव एकदम से कराये जाते हैं, तो शायद पूरी व्यवस्थता अस्त-व्यस्त हो जायेगी.
पंडित नेहरू के करीबी रहे अंग्रेज़ समाजवादी-इतिहासकार, अर्नाल्ड तोय्न्बी, के अनुसार सफल परिवर्तन धीरे-धीरे, सोच समझकर, नई-पुरानी चुनौतियों से जून्झते हुए, अपनी गलतियों से सीख लेकर, उनको सुधार कर, एक-एक सीड़ी चढ़ कर, होता है. श्री राहुल गाँधी इस बात को भली-भाँती समझते हैं. इसलिए देश के विभिन्न प्रान्तों में, एक-एक कर, पार्टी के युवा संगठनों के चुनाव करवा कर, वे संभल-संभल के, धीरे-धीरे, सम्पूर्ण परिवर्तन की ओर बढ़ रहे हैं.
आखिरकार, आज के छात्र और युवा नेता ही तो कल कांग्रेस के मुख्य संगठन का नेतृत्व करेंगे: अगर संसद को ही देख लें, तो उसमें कम से कम ३४ ऐसे सांसद हैं जो कांग्रेस के युवा संगठनों में आज भी सक्रीय रूप से सदस्य हैं.
जाग, मुसाफिर, जाग ज़रा
लोकतंत्र का मतलब मात्र चुनाव से नहीं है. प्रिन्सटन विश्वविद्यालय के चिन्तक, सुनील खिलनानी, ने अपने शोध, "ऐन आईडिया ऑफ़ इंडिया", में लिखा है कि भारतीय लोकतंत्र शायद इसलिए इतना विकसित नहीं हो पाया है क्योंकि हमने अब तक अपने लोकतंत्र को 'चुनावों के पंचवर्षीय तमाशे' से ऊपर उठने ही नहीं दिया है: चुनाव के साथ-साथ आवश्यक है, लोकतांत्रिक संस्थाओं और संस्कृति, जैसे कि संसदीय प्रणाली और बहस, का विकास, जिसका अभाव अब भी हमारे देश में है.
युवा संगठनों के चुनावों में भी इस अभाव को महसूस किया जा सकता है. पार्टी के आतंरिक चुनाव होने के कारण, छात्र नेता मुद्दों पर नहीं, बल्कि अपने-अपने व्यक्तित्व- जिसमे उनके बड़े नेताओं से सम्बन्ध और वोटों को एन-केन-प्रकारण प्रभावित करने की अन्य समस्त क्षमताएं समाहित हैं- के बलबूते पर चुनाव लड़ते हैं. ऐसे में, स्वाभाविक तौर से ऐसे छात्र जिन्हें आला नेताओं का वरदहस्त प्राप्त नहीं है, या फिर वे धन-बल से कमजोर हैं, दूसरों की अपेक्षा कमजोर पड़ जाते हैं. (इन चुनावों में सदस्यता-फीस १० रूपये है, जिसे छात्रों को स्वयं देना चाहिए, न कि किसी दूसरे को जो कि खुद चुनाव लड़ने-लड़वाने में इच्छुक हो.)
इस समस्या का समाधान एक ही है: छात्रों को अपना वोट देते समय जागरूक रहना पड़ेगा. वे ऐसे व्यक्ति को चुने जो उनके सुख-दुःख में, उनके साथ रहा हो; और जो भविष्य में भी उनके हितों की रक्षा करने के लिए संघर्ष करने में पीछे न हटे चाहे चुनौती कितनी बड़ी ही क्यों न हो. मुझे इस बात का गर्व है कि मैं ऐसे कई छात्र-नेताओं को जानता हूँ; उनके साथ मुझे काम करने के अवसर भी समय समय पर मिलते रहे हैं. लेकिन ऐसे नेताओं को मुझसे कहीं बहतर वर्तमान में छात्र जीवन के संघर्ष से गुज़र रहे युवा, जानते हैं.
ये चुनाव महज़ एक तमाशा न बन जाए, इसका विशेष ध्यान रखना होगा.
गांधी बनाम जिन्नाह
अंत में, मैं आपका ध्यान छात्र राजनीति की दो प्रमुख विचारधाराओं की ओर आकर्षित करना चाहूंगा: स्वतन्त्रता संग्राम के दौरान जब राष्ट्रपिता, महात्मा गाँधी, ने छात्रों को अपनी-अपनी पढ़ाई छोड़कर, भारत छोड़ो आन्दोलन में पूरी तरह से भाग लेने का आह्वान किया था, तब उनके विरोधी और भविष्य के पकिस्तान के क़ैद-ए-आज़म, मोहम्मद अली जिन्नाह, ने यह टिप्पणी करी थी कि छात्र पहले अपनी पढ़ाई ख़त्म करके अपने-अपने पैरों पर खड़े हो जाएँ, फिर किसी आन्दोलन में भाग लें.
मैं समझता हूँ कि इन दोनों के बीच का रास्ता, सही रास्ता है- जिसे बौद्ध-चिंतन में "मध्यम मार्ग" की संज्ञा दी गई है. छात्रों को आन्दोलन करना चाहिए, लेकिन जो भी आन्दोलन वे करें, उनके अपने छात्र-जीवन- विशेषकर पढ़ाई- से सीधे सम्बंधित रहे. मसलन उनका कॉलेज फीस में वृद्धी के खिलाफ आन्दोलन करना सही है, लेकिन धान ख़रीदी में हुए प्रदेशव्यापी घोटाले की जांच की मांग करने के लिए उनका अपनी क्लास छोड़कर जेल जाना, या फिर मुख्यमंत्री के पुतले जलाना, मेरी समझ से उचित नहीं होगा. ये काम युवा कांग्रेस, और कांग्रेस के दुसरे मोर्चा संगठनों, का है, न कि छात्रों का.
छात्र राजनीति- और उसके जरिए, प्रदेश की भविष्य की राजनीति- में जो परिवर्तन का प्रयोग प्रारंभ हुआ है, उसका मैं स्वागत करता हूँ. और सभी मेरे छात्र-छात्रा नौजवान साथियों को इस प्रयोग की अपार सफलता के लिए अपनी शुभकामना देता हूँ.
11 comments (टिप्पणी):
chaliye pahali baar shayad congress me internal democracy ka kuch namonishaan dikhe
Desh me democratic inviorment tbhi insure ho skta hai jb hmare political institution me democratic functioning insure hoga.
ydi congress aisa imandari se krti hai to acchi bat hogi,kyonki ydi ab tk aisa nhi huaa to congress hi uske liye javavdeh hai.
NSUI के इस चुनाव से पुरे प्रदेश और जिलो में मजबूत और शक्षम युवा छात्र नेताओ की फौज बनेगी, हम सभी को श्री राहुल जी की इस दूरगामी सोच को निश्चित सबल प्रदान करना चायिये, जो आने वाले समय में प्रदेश में कांग्रेस को हकीकत में मजबूती प्रदान कर सके.
amit aapne samiksha achha kiya hai aapke lekh achhe lagte hain...main hamesha follow karta hon, kya kaide azam mohammed ali jinnah mahatma gandhi ke virodhi the ?
संगी मोर बिचार आपके छ्त्तीसगढ़िया सबले बढ़िया! म देहे हांवव.
bold initiative by congress leaders. they do deserve kudos. Let democracy win!
muje nahi lagtha bhiya isse unity mein kuch fayda hoga!!!! ap ko kya lagtha hain???????
bhiya ye election to thik hai but dist. aur state body main kitne chhattisgariya log aa payenge khas karke village ke log.....mujhe lagta hai village ke student ke liye reservation dist. aur state body dono main jaroori tha......nahi to village main bhe city ke NSUI wale he bade neta bankar ghoomenge.
Congratulations for the grand victory in CG-NSUI Elections !!!
Waiting for more.....!!!
Congrats Bhaiya.....for Wining of NSUI of Jogi Teams.....Yippy .....!!!!!!!!!!!
we are not victims, we are VICTORS
poore state me aapke glorious jeet per badhai
jaha aap rahenge waha jeet milega
amit jogi jindabaad!
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